अबला तेरी यही कहानी…

-अश्वनी कुमार- दुनिया भर में महिलाओं कि स्थिति को देखकर आज राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा लिखी गई कविता “अबला जीवन तेरी  यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी” याद आ गयी कितनी प्रासंगिक लगती है ये कविता आज भी, जिस समय लिखी गयी थी उस समय कि बात तो समझ में आती है कि उस समय की स्थितियां ऐसी रही होंगी। पर अगर आज भी भी ये उतनी प्रासंगिक है तो सवाल बन जाती है। एक ऐसा सवाल जो आज खड़ा हो गया है। आखिर महिलाओं कि स्थिति में कब सुधार होगा, क्या महिलाएं निकट भविष्य में भी बाबा आदम के जमाने में जीती रहेंगी? और भी न जाने कितने ही सवाल है महिलाओं से जुड़े जो यहाँ खड़े हो जाते हैं। निरंतर विकास के नए सौपानों को छूती दुनिया में महिलाओं कि स्थिति आज भी उतनी ही दयनीय है जितनी आज से दो सौ-तीन सौ साल पहले थी। बड़ी विडम्बना की बात है।

हाल ही में महिलाओं की स्थिति के बाबत अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘वुमन्स रीजनल नेटवर्क’ (डब्लूआरएन) द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट यह दर्शाती है कि आज भी महिलाएं वही जीवन जी रही है जैसा वह पिछले बहुत से सालों से जीती आ रही हैं। यह रिपोर्ट तो यही प्रदर्शित करती है। इस संस्था द्वारा भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कॉन्फ्लिक्ट जोन (संघर्ष वाले क्षेत्रों) में निवास करने वाली महिलाओं की स्थिति का सैन्यीकरण, सुरक्षा और भ्रष्टाचार जैसे तीन महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर आंकलन किया। और पाया कि महिलाओं कि स्थिति कितनी दयनीय है। आज महिलाएं हवा में उड़ने लगी हैं, पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं, पुरुषों कि बराबरी कर चुकी हैं, हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। फिर हर वर्ष आने वाली रिपोर्ट यह क्यों नही दर्शाती? ये एक बड़ा सवाल है ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है ये रिपोर्ट हमें साफ़ तौर पर यह दर्शाती हैं। सरकार कहने को कुछ भी कहती रहे, मामला सरकार की नज़रों में रहते हुए भी नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। भारत में ही नहीं दुनिया भर में।

इस दिखाई गयी रिपोर्ट के लिए किये गए शोध में भारत के जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा और ओडिशा राज्यों की महिलाओं,  अफगानिस्तान के काबुल, बाल्ख, बामयान, फरयाब, हेरात, कांधार, नांगरहर और कुंडुज इलाकों कि महिलाओं, और  पाकिस्तान के स्वात और बलूचिस्तान को शामिल किया गया है। इस शोध से जुडी प्रतिनिधियों ने कहा कि तीनों देशों में महिलाओं के साथ सैन्य बलों द्वारा बलात्कार, मारपीट और प्रताड़ित करने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। शोध से जुडी अफगानिस्तान की ‘जज नजला अयूबी’ का कहना हैं कि अफगानिस्तान में महिलाओं को जानवरों के समान आँका जाता है। इस्लामिक देश होने और शरीयत लागू होने के कारण महिलाओं को पति की इजाजत के बगैर घर से बाहर निकलने या बुर्का न पहनने जैसी छोटी छोटी बातों पर मौत के घाट उतार दिया जाता है। पाकिस्तान में भी कुछ ऐसा ही हाल है। पाकिस्तान में मलाला तो मात्र एक उदाहरण वहां न जाने कितनी ही युवतियां अपनी जान से हाथ धो चुकी हैं। जिन्होंने ने भी महिलाओं कि शिक्षा व अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की है उसे मौत के घाट उतार दिया गया है। इसी बाबत अगर भारत पर नज़र डालें तो  त्रिपुरा में हालात इतने ख़राब और बदतर हैं कि सैनिक जब चाहे किसी महिला को उठा ले जाते हैं, उसके साथ बलात्कार करते हैं। महिलाओं का शोषण करते हैं, और विडम्बना तो ये है कि इन घटनाओं का ज़िक्र लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कही जाने वाली मीडिया करती है और न ही स्थानीय पुलिस पीड़ितों कि कुछ मदद करती है।

अब सवाल उठता है कि आखिर क्यों इन घटनाओं को तवज्जो दी जाती है, क्या साबुन और परफ्यूम के कुछ ज्यादा एड है मीडिया के पास? ऐसा भी नही है कि मीडिया अपना काम नहीं करती पर जब इतनी महत्त्वपूर्ण घटनाएं जिनपर तुरंत कोई फैसला लेना चाहिए, रह जाती हैं। और दम तोड़ देती हैं मायूसी में। क्यों इस मुद्दे को लेकर एक बड़ी बहस नहीं की जाती, बस एक सुर्खी के बाद मानो खबर का अस्तित्व ही मिट जाता है, गायब हो जाती हैं ये खबरें एक बार सामने आने के बाद, तब लगता है कि क्या हमारी मीडिया भी इन छिपे मुद्दों को नहीं उठाना चाहती?, इनको सबके सामने लाना नहीं चाहती? अब असल कारण का पता चलना तो बड़ा मुश्किल हो गया है, क्योंकि शायद हमारा लोकतंत्र जिसे आज हम “नेताओं का नेताओं के लिए नेताओं के द्वारा शासन” बिना किसी झिझक के कह सकते हैं।

मुद्दा बड़ा है, दुनिया भर में ज्वलंत मुद्दा। महिलाओं से जुड़ा हर मुद्दा आज विभिन्न मुद्दों को पीछे छोड़ चूका है। अगर हम भारत में महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही  हिंसा और अत्याचार की बात करें तो कोई ऐसा राज्य नहीं होगा जहां महिलाएं प्रताड़ित न होती हों। उनकी पर विभिन्न मान्यताएं न थोपी जाती हों, पहले तो महिलाएं अपने घरों से बाहर सुरक्षित नहीं थी परन्तु आज तो महिलाएं अपने घरों में अपने परिवार कि छ्या में भी सुरक्षित नहीं हैं। आये दिन खबरों में पढ़ने को मिलता है कि आज एक पिता ने अपनी बेटी के साथ दुष्कर्म किया, आज एक भाई ने बहन के साथ, आज एक जीजा ने साली के साथ, आज एक ससुर ने बहु के साथ, और भी न जाने क्या क्या सुनने में आता है। क्या कहें इसे मानसिकताओं का बदलना या हवस का परवान चढ़ना?

अश्वनी कुमार
अश्वनी कुमार

अगर भारत में पिछले कुछ सालों में दुष्कर्म के आंकड़ों पर गौर करें तो चौंकना सम्भव है क्योंकि पिछले कुछ सालों में आंकड़ें केवल बढ़ने पर हैं। 2011 में जहाँ महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों की संख्या 228650 थी, वहीं 2012 में यह संख्या बढ़कर 244276 हो गयी, वहीँ जहां 2011 में 19 फीसदी अपराध सामने आये थे, वहीँ 2012 में 42 फीसदी अपराधों की घटनाएं घटीं। अगर राज्यों में इन अपराधों पर नजर डालें तो असम में 89.5 फीसदी, आन्ध्र प्रदेश में 40.5 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 20.7 फीसदी, दिल्ली में 14.2 फीसदी एवं बेंगलुरू और कोलकाता में क्रमशः 6.2 और 5.7 फीसदी अपराध सामने आये, जबकि 2012 में ही मध्य प्रदेश में सबसे अधिक दुष्कर्म 3425 और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा उत्पीड़न के मामले सामने आए हैं, जिसमें दहेज के लिए हत्या के 27.3 फीसदी, 2244 मामले सामने आये, इनके बाद अगर हरियाणा की बात करें तो आंकड़े बेहद ही चिंताजनक हैं।

अब अगर ऐसे ही अपराधों का बढ़ना निरंतर जारी रहा तो अंदाजा लगा लीजिये, क्या हालत होंगे आने वाले समय में? और क्या होगी महियों की स्थिति? दुनियाभर के देशों में। अब चुप रहने से काम चलने वाला नहीं है। कुछ करने होगा, कदम आगे कि ओर बढ़ाना होगा। वरना हालात तो और भी बदतर होने वाले हैं। प्रकाश की एक किरण तब सामने आयी थी जब निर्भया फण्ड कि घोषणा की गयी थी पर एक साल बीतने वाला है, न जाने क्या हुआ उस फण्ड का? शायद ठन्डे बस्ते में ही चली गयी साड़ी कि साड़ी योजना, और हम हैं के आज तक चुप ही हैं और शायद आगे भी ऐसे ही मूकदर्शक बनकर जीते रहेंगे।
अश्वनी कुमार ने पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत मासिक पत्रिका ‘साधना पथ’ दिल्ली से की। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से भी जुड़े रहे हैं। आज एक निजी फर्म के साथ कॉन्टेंट राइटर के रूप में जुड़े हैं। और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सक्रिए रूप से लेखन भी कर रहे हैं।

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