लघुकथा-डर

रास बिहारी गौड़
मित्र ने फुसफुसाते हुए कहा-
“यार ये क्या उल्टा-सीधा लिखते रहते हो..कहीं सरकार की नज़र में आ गये तो लेने के देने पड़ जाएँगे…। अच्छी ख़ासी नौकरी से हाथ धो बैठोगे..।”
सुनकर डर की एक बारीक सी परत मेरे चेहरे पर उभरी लेकिन तुरंत ही लिखने वाली क़लम ने उसे वहाँ से उसी तरह पौंछ दिया जैसे फ़र्श पर गिरे पानी को कुशल गृहणी तुरंत साफ़ कर फिसलन की आशंकाएँ मिटा देती है ..।
मैं शब्दों के कदमों पर जम कर खड़ा था। मेरी ज़ुबान में विद्रोह और आत्म विश्वास एक साथ बोल रहे थे-
” भाई मैंक्या उल्टा सीधा लिख रहा हूँ..? मेरा सच..मेरी अभिव्यक्ति..मेरी अपनी है..।सत्ता या समय का विरोध, उल्टा सीधा कैसे हो गया,,? मैं किसी का अपमान नहीं कर रहा..जैसा देख या समझ पा रहा हूँ लिख रहा हूँ…। फिर अब इस उम्र में अपने आप को बदलना सम्भव नहीं है…। क़लम को कदमों में बिछाकर यदि कोई ऊँचाई मिल भी जाए तो क्या…। वैसे मेरा फ़िक्र करने के लिए धन्यवाद..।”
धन्यवाद की गूँज के साथ संवाद ख़त्म हो गया था ..। उचित अनुचित सब एक ओर रखकर मैं मित्र की शुभ चिंताओं के पीछे छिपे डर को पढ़ रहा था …।
हम अपने आप से कितने डरे हुए हैं…? कितने असुरक्षित हैं…? संभवतः मित्र ने ख़तरें को सही भाँपा हो या मेरा प्रतिकार मेरा अहंकार हो….। लेकिन मुझे सचमुच कोई ड़र नहीं लग रहा था..।
मैं अपने ‘नहीं डरने’ से डर रहा था। लेकिन यहाँ भी डर देर तक नहीं टिक पाया था। मैं अपने “नहीं डरने” से बात करना चाह रहा था…उसका कारण या सच खोज रहा था..।
बहुत खोजने-सोचने पर पता चला कि *किताबों में गाँधी सरीखे संत को पढ़ते हुए उन पृष्ठों ने हर आभासी डर को कहीं सोख लिया है….।*
बुदबुदाते हुए एक बार फिर, मेरी ही ज़ुबान का शब्द मेरे आस पास गूँजा था-
“धन्यवाद …!”
इस बार यह उस महात्मा के लिए थे जो अपनी लाठी लेकर मेरे डर से लड़ रहा था।

*रास बिहारी गौड़*

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