मन चंगा तो कठौती में गंगा !

शिव शर्मा
मन निर्मल है तो अपना शरीर ही तीर्थधाम है। मन निर्विकार है तो अपने मानस में ही गंगा स्नान जैसा पुण्य (पाप कर्मों की धुलाई) मिल जाता है। मन बाहरी वासनाओं से विमुख है तो भीतर वाली गंगा (इड़ा नाड़ी) शुद्ध हो जाती है और कल्याण करती है। मन स्थिर है तो आज्ञाचक्र वाले संगम (इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना नाड़ियों का मिलन स्थल) में डुबकी लगाते हुए आत्मा की अनुभूति सम्भव हो जाती है। इस कहावत में गंगा का ऐसा ही अर्थ है। बाहरी गंगा तो गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने से बहता हुआ पानी है। इस पानी को जन कल्याण के लिए राजा भागीरथ गंगा नदी के रूप में लाए थे। इसके लिए उन्होंने देशव्यापी अभियान चलाया था – गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक दस हजार जगह खुदाई केंद्र बना कर गंगा वाली राह को सम्भव किया था। आंतरिक जागरण की अवस्था में भी रूहानी गंगा का प्रवाह सहस्त्रार चक्र से मूलाधार चक्र तक हो जाता है। यही अवस्था गंगा-स्नान कही गई है।

हठयोग प्रदीप के अनुसार मनुष्य के शरीर में 72 हजार सूक्ष्मतम नाड़ियां हैं। ऐसे ही शिव संहिता में इनकी संख्या साढ़े तीन लाख बताई गई है। ये नाड़ियां हमारे सिर के बाल से भी सौ गुनी बारीक होती हैं। इनसे ऊर्जा प्रवाह होता है। ये सारी नाड़ियां अंततः तीन नाड़ियों में अंतर्भूत हो जाती हैं। ये तीन नाड़ियां है – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इन्हें क्रमशः गंगा, यमुना व सरस्वती भी कहा गया है। इनका स्थान मेरुदण्ड के अंदर है। इड़ा हमारी नाक के बाएँ नथुने में श्वास प्रवाह करती है और पिंगला दाहिने में। तीनों नाड़ियों का संगम वहां होता है जहां रीढ़ की हड्डी एवं गर्दन आपस में मिलते हैं। इसी के सामने ललाट पर आज्ञाचक्र है। आज्ञाचक्र के त्रिकोण में एक ज्योति बिंदु है। वही अंदर का प्रयागराज है ; अंदर का संगम है ; गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम है।

यह अवस्था निरंतर साधना का परिणाम है। सदगुरु द्वारा किये गए शक्तिपात से यह कार्य बहुत सरल हो जाता है। योग साधन एवं नाम सुमिरन ; दोनों विधियों से यहां तक पहुंच जाना सम्भव है। साधना के असर से इन सूक्ष्म नाड़ियों में कम्पन होने लगता है। ऐसी लाखों नाड़ियों में कम्पन से अंदर नाद गूंजता है। हमारा मन उस नाद में डूबने लगता है। उसके मिठास में, उसकी ज्योति में यह मन संसार की तरफ से बेसुध होने लगता है। इसी नाद के सहारे मन आज्ञाचक्र तक पहुंच जाता है। वहां के ज्योति बिंदु में स्थिर हो जाता है। मन को यहां स्थिर करना ही ‘कठौती में गंगा’ माना गया है। इसी से हमारे आंतरिक विकार धुल जाते हैं। निर्मल हुआ मन फिर वासनाओं की तरफ देखता ही नहीं है। कठौती यानी लकड़ी का बर्तन जिसमें पानी भर सकते हैं और उलट कर उस पर पापड़ आदि बेले जाते हैं।

भक्त रैदास के तपोबल से एक बार उनके पास रखी हुई कठौती में ही गंगावतरण सम्भव हुआ था। ऐसा ‘करम’ काशी-नरेश के सामने हुआ था। तब ही से यह कहावत चल पड़ी – मन चंगा तो कठौती में गंगा। रैदास स्वयं परम भक्त थे, जागे हुए थे, आंतरिक संगम में नहाए हुए थे।

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