रूहानी संवाद : इबादत का सबक कबीर से सीखो

शिव शर्मा
कबीर यानी माला, छापा, तिलक आदि कुछ नहीं। कबीर अर्थात् न मंदिर, न मस्जिद, न दरगाह। कबीर का मतलब है न नमाज, न रोजा, न अखण्ड पाठ। कबीर होने का अर्थ है – अपने ही हृदय में बैठ जाओ। अपनी ही श्वास में उतर जाओ। अपने ही शरीर धारी ‘मै’ को छोड़ कर ब्रह्म वाले ‘अहम्’ में प्रवेश करो। यह सारा का सारा आंतरिक मामला है। सब का सब सूक्ष्म – साँस में सोहं। मन में स्फुरित तत्वमसि। जीवात्मा की अनुभूति ‘अहम् ब्रह्मस्मि। आत्मा रूपी गुरु भी अंदर। राम यानी रूहानी प्रकाश भी अंदर के हृदय में। रूहानी नाद भी हृदय में। चिदाकाश भी सूक्ष्म मन (चित्) में।
यह है कबीर वाली इबादत का सबक। इसे याद नहीं करना है। इसका अभ्यास करना है। खुद को ही करना है। जप तप धारणा ध्यान समाधि सब अंदर ही करना है! अपने मै को खुद ही मिटाना है। अपनी वासनाओं की भीड़ से स्वयं को ही बचते हुए निकलना है। टकराओ मत, बच कर निकलना सीखो। स्वयं के व्यक्तिवाचक मै को उसके ब्रह्म जितना विस्तार दिखा दा। ं तब वहां चिदानंद का उत्सव होगा। तब वहां ब्रह्मोत्सव होगा। तब वहां अनहद नाद बजेगा। तब वहां नाद-ज्योति का रास दिखेगा। राधा कृष्ण की रास लीला ऐसी ही है। शिव पार्वती का नृत्य ऐसा ही हैं ।
क्बीर यानी जित देखूं तित तू (ब्रह्म)। पत्नी में, सन्तान में। मित्र में। ब्राह्मण में, शूद्र में। राजा में, प्रजा में। गुरु में, शिष्य में। बाहर तो सब अलग अलग दिखते हैं किंतु अंदर सब के सब जीवात्मा हैं – न स्त्री, न पुरुष। इसलिए वासना है ही नहीं। इसलिए जातिगत, धर्मगत, वर्गगत और अन्य कोई भी भेद नहीं है । सब जीवात्मा हैं। कबीर इसीलिए कहते हैं – वारी तेरे नाम पर, जित दूखूं तित तू।

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