-सर्वे और भीड़ चुनाव जीतने-जिताने का पैमाना नहीं
-जनता बोलती नहीं, सीधे फैसला करती है
✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉यह ब्लॉग कांग्रेस और भाजपा के लिए है। मुद्दा इस साल नवंबर-दिसंबर में होने वाले चुनाव का है। भाजपा इस मुगालते में है कि जनता बदलाव चाहती है और कांग्रेस के तथाकथित कुशासन से देखी है, इसलिए इस बार भाजपा की सरकार बननी तय है, तो भाजपा यह मुगालता बिल्कुल नहीं पाले। कांग्रेस इस भरोसे में है कि उसने बेहतर शासन-प्रशासन दिया है, दिल खोलकर जनता पर लुटाया है, सरकारी तिजोरी का मुंह जनता के लिए खोल दिया है और कराया गया सर्वे फिर से कांग्रेस की सरकार रिपीट होने के संकेत दे रहा है, तो कांग्रेस को भी सलाह है कि वह किसी भरोसे में नहीं रहे। मैंने अखबारी जगत में रिपोर्टर से लेकर इंचार्ज तक काम करने का लंबा सफर तय किया है। इस दौरान अनेक लोकसभा, विधानसभा, पंचायत राज और नगर निकाय चुनावों का नामांकन पत्र दाखिल होने से लेकर मतदान होने और चुनाव परिणाम घोषित होने तक चुनाव का कवरेज किया है। इसलिए यह बात मजबूती से कह सकता हूं कि ना कोई सर्वे और ना ही चुनावी सभाओं में जुटने वाली भीड़ किसी राजनीतिक दल या प्रत्याशी के चुनाव जीतने-जिताने या हारने का पैमाना हो सकती है। प्रेम आनंदकरअमूमन तौर पर भीड़ देख कर राजनीतिक दल और चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी खुश हो जाते हैं। हार-जीत का जोड़, गुणा, भाग कर लेते हैं। वो जमाना गया साहब, जब जनता वोट देने से पहले और वोट देने के बाद मुंह खोलकर या इशारों में यह बता दिया करती थी कि किसको वोट देगी या किसको वोट देकर आई है। कोई 30–35 साल पहले यह नजारा गाहे-बगाहे कहीं-कहीं देखने में आ जाता था। लेकिन उसके बाद से ऐसा परिवर्तन आया कि अंदाजा या कयास लगाना भी मुश्किल हो गया। यही कारण है कि पिछले कई चुनावों में एग्जिट पोल भी धराशायी होते देखे गए। अब ठेठ ग्रामीण क्षेत्रों के युवा मतदाताओं की बात तो छोड़िए, महिला-पुरूष भी ना वोट डालने से पहले और ना ही वोट डालने के बाद मुंह खोलते हैं। हाथ भर का घूंघट निकालने वाली महिलाएं भी बड़ी चतुराई से जवाब देती हैं कि हमारी मर्जी होगी, उसे वोट दे देंगे या जिसे मर्जी थी, उसे वोट दे आए। पिछले दिनों राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह बयान आया कि हमने सर्वे करा लिया है और सर्वे में कांग्रेस की सरकार रिपीट हो रही है। इधर, भाजपा यह सोचकर मन में लड्डू फोड़ रही है कि कांग्रेस के शासन से जनता तंग आ गई है, इसलिए इस बार भाजपा की सरकार बनना तय है। इसलिए दोनों ही दलों को ना किसी सर्वे और ना ही भीड़ को अपनी जीत का पैमाना या आधार मानकर खुश होना चाहिए। जनता के मूड को भांपना बिल्कुल भी आसान नहीं है। अब जनता मुंह नहीं खोलती है, बल्कि सीधे फैसला करती है। जनता के सामने मुद्दे एक नहीं, कई होते हैं। किस मुद्दे पर तिरा दे और किस पर डुबो दे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। हां, इतना जरूर है कि जनता मुद्दों के बीच हवा का रुख भी देखती है। जरूरी नहीं है कि जो हवा एक चुनाव में चले या चली हो, वह अगले दूसरे चुनाव में भी चल जाए। यह भी जरूरी नहीं कि टेम्पो, तांगे, टैक्सी, कार या अन्य किसी वाहन में घर से मतदान केंद्र तक पहुंचने वाले मतदाता उसी दल को वोट दें, जिस दल के कार्यकर्ता उन्हें लाए थे। यही नहीं, मतदान केंद्रों से कुछ दूर प्रत्याशियों की जो टेबल लगती है, उस पर लगने वाली भीड़ से हार-जीत का आकलन किया जाए या कयास लगाए जाएं। कुछ लोग अपना नाम किसी और टेबल पर देख कर पर्ची लेते हैं, वोट किसी और को दे आते हैं। हां, जिन लोगों की पक्की विचारधारा किसी दल के प्रति होती है, तो वे उसी दल को वोट देते हैं। और फिर राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा भीतरघात के रूप में की जाने वाली “कारसेवा” को भी कैसे भुलाया जा सकता है। “ना खाएंगे-ना खाने देंगे” की तर्ज पर “रायता फैलाने” ऐसे कारसेवक कमोबेश सभी दलों में पाए व देखे जा सकते हैं। और फिर चुनावी मौसम में पैदा होने वाली कतिपय “तीसरी शक्तियां” भी कम थोड़े ही होती हैं।