सादा जीवन उच्च विचारों के धनी बापु के शिष्य बाबू और उनके जीवन के प्रेरणादायक संस्मरण

जब गांधी जी बिहार के चंपारण आये, तब उन्होंने राजेंद्र प्रसाद को स्वयंसेवकों के साथ चंपारण आने के लिए कहा | तब राजेन्द्र बाबू अनेक कार्यकर्ताओं के साथ वहां पहुंच गये | वो गांधी जी की देश भक्ति की अटूट भावना से बहुत प्रभावित हो गये हुए | बापू ऐ मिलने के बाद राजेंद्र बाबू का नजरिया पुरी तरह से बदल गया और उन्हों खुद को देश को अंग्रेजो की गुलामी से आजाद करने का संकल्प ले लिया उनका दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया और वो आजादी की लड़ाई में पूरी तरह से जुट गये |का संकल्त्रप ले लिया | डॉ राजेंद्र प्रसाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में शामिल हो गये | उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और देश के पहले मंत्रिमंडल में 1946 से 1947 तक कृषि और खाद्य मंत्री का दायित्व भी निभाया |
उनका जन्म 3 दिसंबर, 1884 को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई गांव में हुआ था उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे. माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं. मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह राजवंशी देवी से हुआ
उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया और 30 रुपये मासिक छात्रवृत्ति प्राप्त की. वर्ष 1902 में प्रसिद्ध कलकत्ता प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया | यहां उनके शिक्षकों में महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस और माननीय प्रफुल्ल चंद्र रॉय शामिल थे | बाद में वह विज्ञान छोड़ कला संकाय में आ गये और अर्थशास्त्र में एमए और कानून में मास्टर की शिक्षा पूरी की |
वर्ष 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लिया | वर्ष 1914 में बंगाल और बिहार में आयी भयानक बाढ़ के दौरान उन्होंने पीड़ितों की खूब सेवा की | 15 जनवरी, 1934 को जब बिहार में विनाशकारी भूकंप आया, तब वे धन जुटाने और राहत कार्यो में लग गये } राहत का कार्य जिस तरह से व्यवस्थित किया गया था, उसने डॉ राजेंद्र प्रसाद के कौशल को साबित किया. इसके तुरंत बाद उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया. वे वर्ष 1934 से 1935 तक भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे | उन्हें 1939 में सुभाष चंद्र बोस के बाद जबलपुर सेशन का भी अध्यक्ष बना दिया गया |
26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में संविधान को पारित करते समय डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा कहे गये शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं | ” ‘जो लोग चुन कर आयेंगे, यदि योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए, तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोच्च बना देंगे | यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ, तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता. आखिरकार एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है संविधान में प्राणों का संचार उन व्यक्तियों द्वारा होता है, जो इस पर नियंत्रण करते हैं | इसे चलाते हैं | भारत को इस समय ऐसे लोगों की जरूरत है, जो ईमानदार हों तथा जो देश के हित को सर्वोपरि रखें | हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है. इसमें सांप्रदायिक, जातिगत, भाषागत व प्रांतीय अंतर है | इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले, दूरदर्शी व ऐसे लोगों की जरूरत है, जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और उन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ सकें, जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं | हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आयेंगे |’
2 जनवरी, 1950 को जब स्वतंत्र भारत का संविधान लागू किया गया, तो डॉ राजेंद्र प्रसाद के प्रथम भारत राष्ट्रपति ब.वर्ष 1962 में सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया | जिन्दगी के अंतिम पडाव में उन्हों अपना जीवन एक आम नागरिक का भाति सदाकत आश्रम में बिताया उनके लिए राष्ट्रपति भवन और सदाकत आश्रम एकसा था | 28 फरवरी, 1963 को वों पंच महाभूतों में विलीन हो गये | राजेन्द्र बाबू ने अनेको किताब लिखी अपनी आत्मकथा ( 1946 } बापू के कदमों में बाबू (1954}, इण्डिया डिवाइडेड (1946), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (1922), गांधीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं
प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू और बापूजी के शिष्य के जीवन के प्रेरणादायक संस्मरण
जब परीक्षा में प्रथम आने वाले का नाम उत्तीर्ण छात्रों सूची में नहीं था
प्रिंसिपल ने एफ.ए. में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिए तो राजेन्द्र प्रसाद का नाम उस सूची में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद एक मेधावी छात्र थे उन्हें अपने आपको फेल होने पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उन्हें अपनी एफ.ए की परीक्षा में सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण होने का पूरा भरोसा था, इसलिए उन्होंने खड़े होकर प्राचार्य से कहा कि वे फेल नहीं हो सकते हैं इसलिए उन्होंने प्रिंसिपल से परीक्षा में हुए उत्तीर्ण विद्यार्थियों की सूची को एक बार पुनः देख लेंने का अनुरोध किया जिससे, प्रिंसिपल ने क्रोधित होकर राजेन्द्र प्रसाद से कहा कि वह फेल हो गए होंगे अत: उन्हें इस मामले में तर्क नहीं करना चाहिए। राजेंद्र का हृदय धक-धक करने लगा और वे हकलाकर घबराते हुए बोले ‘लेकिन, लेकिन सर’ क्रोधित प्रिंसिपल ने कहा, ‘पाँच रुपये ज़ुर्माना’ राजेन्द्र प्रसाद साहस कर दोबारा बोले तो प्रिंसिपल चिल्लाये और बोले ‘दस रुपया ज़ुर्माना’| राजेन्द्र प्रसाद बहुत घबरा गए। अगले कुछ क्षणों में ज़ुर्माना बढ़कर 25 रुपये तक पहुँच गया। एकाएक हैड क्लर्क ने राजेन्द्र को पीछे से बैठ जाने का इशारा किया और वे प्रिंसिपल से बोले कि सर एक गलती हो गई है, वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद परीक्षा में प्रथम आए हैं। राजेन्द्र प्रसाद की छात्रवृत्ति दो वर्ष के लिए बढ़ाकर 50 रुपया प्रति मास कर दी गई। उसके बाद स्नातक की परीक्षा में भी उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। इस घटना के बाद राजेन्द्र प्रसाद ने यह जान लिया था कि आदमी को अपना संकोच को दूर कर आत्मविश्वासी बनना चाहिए।
कॉलेज में भोले बाले देहाती राजेन्द्र बाबू का पहला दिनसरल एवं निष्कपट स्वभाव वाला सीधा-साधा ग्रामीण युवक राजेन्द्र प्रसाद बिहार पहली बार 1902 में कलकत्ता में प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश हेतु आया था | अपनी कक्षा में जाने पर वह छात्रों को ताकते रह गये क्योंकि वहां सभी छात्र नगें सिर एवं सभी पश्चिमी वेशभूषा की पतलून और कमीज पहने थे इसलिये उन्होंने सोचा ये सब एंग्लो-इंडियन हैं किन्तु जब हाजिरी बोली गई तो राजेन्द्र को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे सभी हिन्दुस्तानी थे। जब राजेन्द्र प्रसाद का नाम हाजिरी के समय नहीं पुकारा गया तो उन्होंने हिम्मत जुटा कर अपने प्रोफेसर को पूछा कि उनका नाम क्यों नहीं लिया गया। प्रोफेसर उनके देहाती कपड़ों को घूरता ही रहा एवं चिल्ला कर बोला“ठहरो”, मैंने अभी स्कूल के लड़कों की हाजिरी नहीं ली है |राजेन्द्र प्रसाद ने हठ किया कि वह प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र हैं और उन्होंने प्रोफेसर को अपना नाम भी बताया। अब कक्षा के सभी छात्र उन्हें उत्सुकतावश देखने लगे क्योंकि उस वर्ष राजेन्द्र प्रसाद विश्वविद्यालय में प्रथम आये थे, प्रोफेसर ने तुरंत अपनी गलती को सुधार कर ससम्मान उनका नाम पुकारा और इस तरह राजेन्द्र प्रसाद के कॉलेज जीवन की शुरुआत हुई।
राजेन्द्र बाबू की दिनचर्या पर गांधीजी की छाप
समाज के बदलने से पहले अपने को बदलने का साहस होना चाहिये। “यह बात सच थी,” बापूजी की इस बात को राजेन्द्र बाबू ने अंतर्मन से स्वीकार किया वे कहते थे कि “मैं ब्राह्मण के अलावा किसी का छुआ भोजन नहीं खाता था। चंपारण में गांधीजी ने उन्हें अपने पुराने विचारों को छोड़ देने के लिये कहा। आखिरकार उन्होंने समझाया कि जब वे साथ-साथ एक ध्येय के लिये कार्य करते हैं तो उन सबकी केवल एक जाति होती है अर्थात वे सब साथी कार्
अंगेज को सिखाया पाठ
एक बार राजेंद्र बाबू नाव से अपने गांव जा रहे थे। नाव में कई लोग सवार थे। राजेंद्र बाबू के नजदीक ही एक अंग्रेज बैठा हुआ था। वह बार-बार राजेंद्र बाबू की तरफ व्यंग्य से देखता और मुस्कराने लगता। कुछ देर बाद अंग्रेज ने उन्हें तंग करने के लिए एक सिगरेट सुलगा ली और उसका धुआं जान बूझकर राजेंद्र बाबू की ओर फेंकता रहा। कुछ देर तक राजेंद्र बाबू चुप रहे। लेकिन वह काफ़ी देर से उस अंग्रेज की इस हरकत को सहन नहीं पाये। उन्हें लगा कि अब उसे सबक सिखाना जरूरी है। कुछ सोचकर वह अंग्रेज से बोले, ‘महोदय, यह जो सिगरेट आप पी रहे हैं क्या आपकी ही है?’ यह प्रश्न सुनकर अंग्रेज व्यंग्य से मुस्कराता हुआ बोला, ‘अरे, मेरी नहीं तो क्या तुम्हारी है? महंगी और विदेशी सिगरेट है।’ अंग्रेज के इस वाक्य पर राजेंद्र बाबू बोले, ‘बड़े गर्व से कह रहे हो कि विदेशी और महंगी सिगरेट तुम्हारी है। तो फिर इसका धुआं भी तुम्हारा ही हुआ न। उस धुएं को हम पर क्यों फेंक रहे हो? तुम्हारी सिगरेट तुम्हारी चीज है। इसलिए अपनी हर चीज संभाल कर रखो। इसका धुआं हमारी ओर नहीं आना चाहिए। अगर इस बार धुआं हमारी और आया तो सोच लेना कि तुम अपनी जुबान से ही मुकर रहे हो। तुम्हारी चीज तुम्हारे पास ही रहनी चाहिए, चाहे वह सिगरेट हो या इसका धुआं, राजेन्द्र बाबू की बात को सुनकर बेचारा अंग्रेज सकपकाया और उसने अपनी जलती हुई सिगरेट को बुझा दिया।
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी से जुड़ा किस्सा है। एक दिन उन्होंने गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत जी को बुलाया और उनसे कहा, ‘मैं आपको एक पत्र दे रहा हूं, आप इस पत्र को ले जाइए और बहुत ही सम्मान से गोरखपुर में गीता प्रेस के सह संस्थापक और संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को ये पत्र देना।’
पोद्दार जी को भाईजी के नाम से भी जाना जाता था। राष्ट्रपति जी की बात सुनकर पंत जी ने पूछा, ‘इस पत्र में ऐसा क्या लिखा है, एक राष्ट्रपति एक व्यक्ति को ऐसा पत्र दे रहा है।’
राजेंद्र प्रसाद जी ने कहा, ‘भाईजी अनूठा काम कर रहे हैं। उन्होंने गीता प्रेस के माध्यम से और धार्मिक साहित्य की मदद से जो जन जागरण का काम किया है, वह बहुत ही अद्भुत है। हमें उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करना चाहिए।’
राष्ट्रपति जी का आदेश था तो पंत जी गोरखपुर में भाईजी के पास पहुंच गए। भाईजी ने बहुत सम्मान के साथ बैठाया। पंत जी ने भाईजी को राष्ट्रपति जी का पत्र दिया। पंत जी सोच रहे थे कि देखते हैं, अब भाईजी की प्रतिक्रिया क्या होती है? भारत रत्न जिसे मिलता है, उसके लिए कैसे क्या व्यवस्था की जाएगी?
पंत जी ये सारी बातें सोच रहे थे, लेकिन पत्र पढ़कर भाईजी ने पत्र को उसी लिफाफे में रखा और पंत जी के सामने हाथ जोड़कर कहा, ‘आप भारत के गृहमंत्री हैं, आप सम्मानीय हैं, मेरा एक निवेदन है। भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू बहुत अच्छे व्यक्ति हैं, मैं उनका बड़ा आदर करता हूं, लेकिन आपने और उन्होंने जो अनुग्रह मुझसे किया है, वह मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए उपाधि एक व्याधि है। जिस मार्ग पर मैं चल रहा हूं, मेरे जो उद्देश्य हैं, उसके लिए ये उपाधि बाधा बन सकती है। ये मेरे निजी विचार हैं। आप ही बताइए मैं व्याधि को मैं कैसे स्वीकार करूं, क्या आप कहेंगे कि मैं बीमार हो जाऊं।’
पंत जी ने लौटकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी को ये बात बताई तो उन्होंने भाईजी को एक पत्र लिखा कि मुझे
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पारिवारिक कर्तव्य के वनिस्पत राष्ट्रीय कर्तव्य ही था सर्वोच्च
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी सगी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेनेगये। राष्ट्रपति बनने पर भी उनका जनसाधारण एवं गरीब ग्रामीणों से निरंतर संमर्र्क बना रहा।वृद्ध और नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्क कायम रखा। वह वर्ष में से 150 दिन रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करते और आमतौर पर छोटे-छोटे स्टेशनों पर रूककर सामान्य लोगों से मिलते और उनके दुख दर्द दूर करने का प्रयासकरते
आजादी आंदोलन में शामिल होने के लिए छोड़ी वकालत
उन दिनों डॉ. राजेन्द्र प्रसाद देश के गिने चुने नामी वकीलों में गिने जाते थे। उनके पास मान-सम्मान और पैसे की कोई कमी नहीं थी। लेकिन जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो राजेन्द्र बाबू ने वकालत छोड़ दी और अपना पूरा समय मातृभूमि की सेवा में लगाने लगे। अपने मित्र रायबहादुर हरिहर प्रसाद सिंह के मुकदमों की पैरवी के लिए उन्हें इंग्लैण्ड जाना पड़ा। वरिष्ट बैरिस्टर अपजौन इंग्लैंड में हरिहर प्रसाद सिंह का मुकदमा लड़ रहे थे उन्हीं के साथ राजेन्द्र बाबू को काम करना था। अपजौन राजेन्द्र बाबू की सादगी और पारिवारिक से बहुत प्रभावित हुए। एक दिन किसी ने अपजौन को कहा कि राजेंद्र बाबू भारत के सफलतम वकीलों में से हैं किन्तु उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने हेतु अपनी वकालत त्याग दी है और वे असहयोग आन्दोलन में गांधीजी के निकटतम सहयोगी बन गये हैं।बैरिस्टर अपजौन को आश्चर्य हुआ l
Dr J K Garg
Former joint Director college education Jaipur