अन्ना पहले भी थे, कामना है शतायु हों, और आगे जायें। लेकिन लोकप्रियता के जिस शिखर पर लोकपाल आन्दोलन के समय में रामलीला मैदान के मंच पर वे जा पहुँचे थे, अब शायद दोहराया न जा सके। हमेशा किसी ब्लाकबस्टर फ़िल्म के नायक की तरह अपने वजूद के मुग़ालते में रहे लोग सबसे पहले उन्हीं को कोसते मिलते हैं जिनके कांधों चढ़कर सफलता से वे दो चार हुए होते हैं। अन्ना और केजरीवाल प्रसंग में यही दिख रहा है। पहले अन्ना पार्टी बनाने न बनाने में पलटी मारते रहे। अब जब चेलों ने अलग दुकान बना ली और वो चल निकली, और गुरु के “सत्य के सारे नये प्रयोग” टाँय टाँय फुस्स हो चले तो गुरु चेले की सायकल पंचर करने में जुट लिये।
वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी. सिंह के फेसबुक वॉल से.