-अंबरीश कुमार- उतर प्रदेश ने भाजपा को फिर दिल्ली की गद्दी तक पहुंचा दिया है। उत्तर प्रदेश में मोदी की ऐसी आंधी चली कि मायावती की बसपा का खाता तक नही खुला और कांग्रेस में सिर्फ सोनिया और राहुल बच पाए। मुलायम अपना गढ़ ही बचा पाए। वंशवाद के खिलाफ मोदी की इस लड़ाई में उनका मुकाबला वंश ही कर पाया यह इस चुनाव का एक नया पहलू है। मुलायम परिवार जीता और परिवार के बाहर वाले सब हार गए। इसका अंदाजा किसी को नही था। यह ‘हिन्दुओं’ का गुस्सा है जो देश भर में दिखा। यह गुस्सा सपा से था, बसपा से था तो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से था। ये सभी दल सेकुलर राजनीति की बात करते हैं। एक तरह से यह गुस्सा ‘सेकुलर राजनीति‘ को लेकर भी नजर आया जो बहुत शुभ संकेत नहीं है। उत्तर प्रदेश में केंद्र की कांग्रेस सरकार और प्रदेश की अखिलेश सरकार के खिलाफ यह लोगों की नाराजगी की अभिव्यक्ति मानी जा रही है। ऐसे नरेंद्र मोदी के रूप में लोगों को एक मजबूत विकल्प दिखा। और फिर मोदी की ऎसी लहर चली कि उत्तर प्रदेश में राजनीति के दिग्गज धराशाई हो गए। प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के तीनों बड़े चेहरे अजित सिंह, मुलायम सिंह और मायावती को बड़ा झटका लगा है। मायावती और अजित सिंह तो लड़ाई से ही बाहर हो गए हैं। अखिलेश यादव की सरकार के लिए भी यह बड़ा धक्का है। मुजफ्फरनगर की आग की जो छाया इस चुनाव पर पड़ी उसमे उत्तर प्रदेश के सभी गैर भाजपा दल झुलस गए हैं। जाट राजनीति से निकले अजित सिंह जाटों के सबसे बड़े गढ़ में हार गए।
यह मजहबी गोलबंदी का ही नतीजा है। ऐसी गोलबंदी कि मायावती का दलित वोट बैंक बिखर गया तो मुलायम के पिछड़े भी बंट गए। मोदी ने सभी को रौंद डाला है। ऐसी जीत की उम्मीद भाजपा नेताओं को भी नहीं थी। इसके पीछे मोदी की राजनैतिक रणनीति रही जिसने बहुत ढंग से विरोधियों को मात दी। कांग्रेस तो पहले ही हार मान चुकी थी मायावती ने बाद में मैदान छोड़ा। मुलायम डटे रहे लेकिन बिना किसी कारगर राजनैतिक रणनीति के। समाजवादी पार्टी ने यह चुनाव बिना कारगर रणनीति के लड़ा, टिकट ऐसे बांटे जिससे उस पर भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगा। लखनऊ और वाराणसी में अगंभीर किस्म का उम्मीदवार दिया। वाराणसी में मोदी के खिलाफ साझा उम्मीदवार की मांग को मजाक में उड़ा दिया। रही सही कसर मंत्रियों ने पूरी कर दी। समाजवादियों के मंच पर जब फरसा और परशुराम आ जाए तो सब साफ़ हो जाता है। अखिलेश सरकार ने थोक में जो लाल बती और अन्य रेवड़ियां बांटी थी वह सब उनके ही गले की हड्डी बनी। समाजवादी पार्टी सिर्फ सोशल इंजीनियरिंग के मुगालते में रही और उसके पिछड़े वोट बैंक में भाजपा ने ढंग से सेंध लगा दी। पर यह अचानक नहीं हुआ। अखिलेश सरकार ने खुद यह मौका भाजपा को दिया।
दंगों की साजिश को सरकार ने कई दंगे होने बाद भी गंभीरता से नहीं लिया वर्ना मुजफ्फरनगर हो नहीं सकता था। फिर जनता की भावनाओं को समझने में कई बार अखिलेश सरकार नाकाम हुई। इससे लोगों की नाराजगी और बढ़ी। उदाहरण आईएस दुर्गा शक्ति का है जिसे एक बड़बोले समाजवादी नेता ने हटवा कर समूचे देश में एक माहौल बनवा दिया। मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद अगर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सैफई महोत्सव ना जाते तो शायद उनपर बड़ा हमला करने का मौका विपक्ष और मीडिया को ना मिलता। यही से उनकी संवेदनहीनता का बड़ा मुद्दा विरोधियों को मिला और उनकी साख पर बट्टा लगना शुरू हुआ। फिर उन मंत्रियों की बारी थी जो हर पंद्रह दिन में अपने अपने अलग-अलग कारनामों से अखिलेश सरकार की छवि खराब करने में कोई कसर नही छोड़ रहे थे। पंडित सिंह से लेकर गोवा कांड से मशहूर हुए झीन बाबू तक। सड़क पर हूटर बजाते हुए हथियारों से लैस दर्जनों राज्य मंत्रियों ने आम लोगों में वैसे भी कम नाराजगी नहीं पैदा की। फिर पुलिस प्रशासन के बारे में भी लोगों की वही राय बन गई जो पहले मुलायम सिंह के सरकार के समय में थी। इस सबको नरेंद्र मोदी ने ठीक से भुनाया और अपनी पहचान एक पिछड़े नेता के रूप में पेश की। मोदी ने गुजरात का जो माडल उत्तर प्रदेश में बेचा उसमें विकास कम कानून व्यवस्था का मुद्दा ज्यादा था। इसीलिए वह बिका भी।
यह माना जाने लगा था कि एक ख़ास जाति के पुलिस के लोग सिर्फ कुछ ख़ास लोगों की सुनते हैं। यह मायावती के राज में भी होता था। इसलिए उत्तर प्रदेश में तीन तरह की पुलिस मानी जाती है, सपा पुलिस बसपा पुलिस और आम पुलिस। जिसकी वजह से कानून व्यवस्था हर बार चरमरा जाती है। पूरे चुनाव में मोदी ने तरह-तरह के चुटकुलों के जरिए उत्तर प्रदेश की बदहाल कानून व्यवस्था को मुद्दा बनाया। इसके बाद बिजली पानी और गंगा तक को मोदी ने मुद्दा बना दिया। इसका जवाब अखिलेश यादव कारगर ढंग से नहीं दे पाए। कई बार मोदी ने भ्रमित करने वाले तथ्य दिए पर उसे बताने वाला कोई नेता नहीं था अपवाद केजरीवाल थे। केजरीवाल अगर मुख्यमंत्री का पद ना छोड़े होते और फिर चुनाव मैदान में आते तो माहौल अलग होता। इसलिए आप की तरफ जो नौजवान झुके थे वे अंत में मोदी के पक्ष में खड़े हो गए। इसके पीछे मोदी की गजब की राजनैतिक मार्केटिंग भी थी। इवेंट मैनेजमेंट की तरह हुआ चुनाव प्रचार था तो संघ कार्यकर्ताओं का परिश्रम भी। इस सबके चलते न दिखने वाली वह मजहबी गोलबंदी थी जो मदिर आंदोलन के थम जाने के बाद भीतर ही भीतर जल रही थी। इसे संघ ने इन चुनाव में ठीक से उभारा भी है। यही वजह है कि मुस्लिम तो बंट गए कही सपा बसपा में तो कहीं उलेमा कौंसिल से लेकर कौमी एकता दल में। ऐसे मुस्लिम वोट उतने प्रभावी नहीं रहे जितने पहले के चुनाव में रहते थे। जबकि हिन्दुओं का बड़ा वोट मोदी के गोलबंद हो गया। वजह एक नही कई है। विकास, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था और दागी नेताओं की अराजकता आदि-आदि।
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