-आलोक कुमार- ये शंकराचार्य क्या बला है ? जन्म से सनातनी हूं। फिर भी शंकराचार्य क्या होते हैं, ये समझ नहीं पाया। पूछने पर पता लगा कि आसान नहीं शंकराचार्य को समझना। यह संस्कृत निष्ठ होने से भी ज्यादा जटिल काम है। सबके पल्ले शंकराचार्य और उनके पीठों की जरूरतों को समझना संभव नहीं है। कुछ ने बताया कि सनातनी होने के नाते बस हम आप तीन बातों का ख्याल रखें। पहला, ग्राम देवताभ्यो भव। दूसरा, कुल देवताभ्यो भव और तीसरा, गृह देवताभ्यो भव।
मेरी समझ से मान्यताओं की स्वच्छंदता और स्वतंत्रता ही सनातनी की असली पहचान है। यह तीन परंपराओं का निर्वहन करते रहने वाले सवा अरब से ज्यादा सनातनियों को धर्मच्यूत कोई नहीं कर सकता। प्रकृति पोषक सनातनियों को निर्देशित नहीं करने वाला कोई बाहरी तत्व नहीं हो सकता। सनातनी होने का मतलब है, विचारों की खिड़की खोले रखिए। जब जो आदर्श लगे मुक्त भाव से खुद में उतारने की कोशिश करते रहिए। ऐसे में कोई आदर्श समझ में आए तो उसे भगवान समझ लेने में कोई हर्ज नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद कहा है संभवामी युगे युगे।
इस सोच को लेकर जीने की वजह से सहज संभाव्य है कि मुझ सनातनी को कभी किसी शंकराचार्य से वास्ता नहीं पड़ा। यादों की झरोखों में झांकूं तो पिछली बार शंकराचार्य राष्ट्रीय चर्चा का विषय तब बने थे जब उनने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता से पंगा लिया था। हत्या के मामले में बुजुर्ग और नौजवान दो शंकराचार्य को पुलिस टांग कर ले गई थी। देश भर में कोई चूं चपड़ नहीं कर पाया था। तब गिरफ्तार हुए शंकराचार्य कन्याकुमारी से थे। और अभी साईं भक्तों को गैरहिन्दू करार देने का फरमान लेकर सामने आए जगतगुरू शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती द्वारिकाधीश पीठ के प्रधान हैं। ये नब्बे साल के हैं। पूर्व में इन्होंने बाकी पीठों के शंकराचार्यों से उलट राय रखकर शंकराचार्य पीठ की प्रतिष्ठा का मानमर्दन करने का ही काम किया है।
दरअसल 1942 अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन “रिवोल्यूशरी साधु” के तौर पर दो बार गिरफ्तारी दे चुके स्वरूपानंदजी का राजनीतिक झुकाव कांग्रेस पार्टी की ओर रहा है। इसलिए राम मंदिर आंदोलन के वक्त वह बाकी शंकराचार्यों से उलट राय रखकर विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्था के लिए मुसीबत बनते रहे थे। अब जब उनकी राय लोकप्रिय हो रहे शिरडी के साई भक्ति के खिलाफ आई है, तो इसका मकसद भी कमोवेश सरकार आने पर शांत बैठे बाकी धर्माचार्यों को उकसाना भर लगता है। लेकिन इस उकसावे से एक बार फिर यह साबित हो रहा है कि सनातन या हिंदु धर्मावलंबी मठाधीशों के भरोसे रहते तो उनका भी हश्र अफगानिस्तान, सुडान, इराक और येरुशेलम में छिड़े मानवीय क्रंदन सा ही होता।
जहां तक शंकराचार्य और शंकराचार्य की परंपरा का प्रश्न है, तो यह अल्पसंख्यक हिंदुओं की आस्था का केंद्र बने हैं। जहां दिन ब दिन चढावे की मात्रा कम होती जा रही है। इंसानी सरोकार से दूर और पेचीदे पूजा पद्धति की जटिलताओं की वजह से शंकराचार्य के प्रति आस्था रखने वालों की तादाद उसी तरह कम होती जा रही है जिस तरह से देवभाषा संस्कृत को जानने समझने वाले लोग। भाषाई आंदोलन की चपेट में आए भारत में ही अब पूजा पाठ के लिए भी संस्कृत की जगह क्षेत्रीय बोलियों ने ले ली है।
शंकराचार्य क्या हैं, इसपर सवाल उठना लाजिमी है। क्योंकि ज्यादातर सनातनियों में इनके होने या ना होने के फर्क का कोई अहसास ही नहीं बचा है। बहुसंख्यक सनातनियों ने शंकराचार्य के बारे में कभी निम्न बातें सुनी ही नहीं कि एक. महाराज किसी चैरिटेबल काम में लगे हैं। दूसरा,सार्वजनिक कल्याण के लिए कोई दान यज्ञ करवा रहे हैं। तीन, विपन्नों के लिए काम कर रहे हैं। चार, महात्मा गांधी की तरह अछूतोद्धार की सोच में जी रहे हैं। पांच, हिंदु धर्म में आई विकृतियों की सफाई के लिए काम कर रहे हों। छह, मदर टरेसा जैसी सेवा भाव में रखते हों। सात, दुनिया में भारतीय मनीषी परंपरा को जीवित रखने के लिए कुछ कर रहे हों। मसलन गुरूनानक, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, महिर्षी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महिर्षी अरविन्दो, भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद, ओशो, फ्लाईंग गुरू महिर्षी महेश योगी, मुरारी बापू, आदि ने आधुनिक दुनिया में भारतीय मनीषी परंपरा को स्थापित करने का जो काम किया है, वो शीर्ष पर बैठने वाले तथाकथित जगतगुरूओं ने न किया है और न ही करने की इच्छा रखते हैं।
ऐसे में गेरूआ दंड सहेजकर चलने वाले स्वामी का सवा अरब हिंदूओं को निदेर्शित करना परिहास का विषय है। यह उस तालिबानी फैसले की तरह है जिसमें समाज को कूपमंडूता का पाठ पढाया जाता है। जहां तक साई भक्ति पर सवाल उठाने का प्रश्न है, तो यह समझना जरूरी है कि साईं भक्ति के प्रति निरंतर आकर्षण क्यों बढ रहा है। मेरी मान्यता है कि यह सिर्फ चमत्कार नहीं है। महज चमत्कार की वजह से साईं को पूजा जाता, तो पश्चिम बंगाल में बीजेपी की टिकट से चुनाव हारने वाले पीसी सरकार सांई के कथित चमत्कारों से बेहतर जादू कर लेते हैं। पीसी सरकार जैसे जादूगरों को सांई बाबा से ज्यादा चढावा चढ रहा होता।
सांईं चरित को लोग डूबकर क्यों गा रहे हैं, भज रहे हैं। अगर कथित जगतगुरू इसे आत्मीय रूप से व्याख्यानित करने की कोशिश करेंगे तो सनातनपंथ का ही भला होगा। जिस तरह से सांई भक्ति के नाम पर भंडारा लगाया जा रहा है। समाज के विपन्नों की सुध ली जा रही है। मानवीय करूणा को व्याख्यानित किया जा रहा है। कहीं न कहीं हमारे पुरातन धर्मग्रेथों में या इसकी व्याख्या टिप्पणियों में इसका नितांत अभाव है। सांई भक्ति के जरिए समाज में सकारात्मकता का संचार करने की कोशिश की जा रही है। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल स्थापित किए जा रहे हैं। इससे मानवता का भला हो रहा है। समाज को इंसानी संवेदना से झंकृत करने की कोशिश की जा रही है। वह अनुपम है। और तो और शिरडी के साईं ने जिस तरह से एक गांव में साठ साल तक रहकर धर्माचरण के लिए लोगों को प्रेरित किया। दुखियों, बेसहारा लोगों की फकीराना अंदाज में मदद की। उसका असर आजतक उस गांव में मौजूद है। उनके गांव के लोग धार्मिक तीर्थयात्रियों की वजह से विपन्न नहीं रहे। पूरी दुनिया आपके गांव की ओर दौड़ी चली आए यह आसान काम नहीं है।
शिऱडी साईं से जो एक बात सीखने की है, वो यह कि चेतन जीवन के लिए आपका जन्म जिस स्थान पर हुआ है कम से कम उसके लिए आपने क्या किया? स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म मध्यप्रदेश के सियोली जिला के दिघोरी गांव में हुआ। गेरूआ वस्त्रधारण करने से पहले उनका नाम पोथीराम उपाध्याय था। पोथीराम उपाध्याय के जन्म के नब्बे साल बाद भी उनके गांव की दशा में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया है। आप कह सकते हैं कि साधु संत के लिए सिर्फ अपना गांव-घर बार नहीं होता है। वह समाज, देश और काल के लिए जीता है, तो हिंदू समाज गौर करने के लिए तैयार है अपने फरमानदाता शंकराचार्य के फैसले पर अगर उनका कोई समर्थक बता दे कि जगतगुरू ने अपनी व्यापकता को व्याख्यानित करने के लिए कौन सा प्रभावी काम किया है, जो समाज, देश या मानवता के लिहाज से अनुकरणीय हो।
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जीनको हिन्दु धर्म और शास्त्रोंमें श्रद्धा और गौरव हैं, और जीनकी धर्ममें प्रवृत्ति हैं, वे ऐसा नहीं सोचतें और लिखतें हैं। लोगोंसे जानकारी लेकर अभिप्राय देनेसे पहले विवाद करनेके हेतुसे नहीं पर हिन्दु होनेके नाते शास्त्रोंमें श्रद्धा रखके शास्त्रों का अभ्यास किया होता तो अच्छा रहता। “ये शंकराचार्य क्या बला है ?” ऐसा प्रश्न नहीं उठता। भंडारे लगाना, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल स्थापित करना ऐसे कार्य हमारे धर्ममें निर्दिष्ट हैं ही, पर उसमें हमारे धर्मका सच्चा प्रतिबींबभी दिखना चाहीए। बाकी तो अन्य धर्मके संतजनभी ऐसा करतेही हैं।