महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ आगामी नवंबर में जम्मू कश्मीर में भी विधानसभा चुनाव कराये जायेंगे। चुनाव की आहट न आती अगर एकदम से कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद प्रकट होकर नेशनल कांफ्रेस के साथ गठबंधन टूटने की घोषणा न कर देते। जम्मू में रविवार को कांग्रेस के तीन वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद, अंबिका सोनी और सैफुद्दीन सोज एकसाथ मौजूद हुए और उन्होंने घोषणा की कि इस बार उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी। राज्य में अभी कांग्रेस नेशनल कांफ्रेस की ओमर अब्दुल्ला सरकार को समर्थन दे रही थी और कांग्रेस के ताराचंद राज्य में उपमुख्यमंत्री के बतौर सत्ता में साझीदार थे। कांग्रेस के अन्य दूसरे मंत्री भी थे और नेशनल कांफ्रेस तथा कांग्रेस ने छह साल साझीदारी से सरकार भी चलाई लेकिन ऐन चुनाव के मौके पर अब दोनों अलग अलग हो चले हैं।
कांग्रेस की इस घोषणा से पहले जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला सोनिया गांधी से मिलकर गठबंधन खत्म करने की मंशा जता चुके थे, यह उन्होंने कांग्रेस की घोषणा के बाद ट्वीट करके बताया। ओमर अब्दुल्ला का कहना है कि दस दिन पहले ही वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले थे और उनको कहा था कि राज्य में वे अकेले चुनाव मैदान में जाएंगे। शायद इसके बाद ही कांग्रेस ने तय किया कि भले ही ओमर अब्दुल्ला निजी तौर पर उन्हें सूचित कर रहे हैं लेकिन वह सार्वजनिक तौर पर इसकी घोषणा करेगी। रविवार को उसने वही किया। तो इसमें ऐसा क्या खास है जिसका जिक्र करना इस मौके पर जरूरी है?
याद करिए एनडीए का शासनकाल। एनडीए में एक ऐसा दल भी शामिल था जिससे समर्थन की उम्मीद शायद ही कभी बीजेपी को रही हो। लेकिन नेशनल कांफ्रेस ने देश के नाम पर यह किया और कमोबेश पूरे एनडीेए शासन के दौरान राज्य में फारुख अब्दुल्ला सरकार चलाते रहे और आखिर के एक साल ओमर अब्दुल्ला विदेश राज्य मंत्री भी बने। लेकिन 2002 में राज्य में हुए चुनाव में कांग्रेस ने पीडीपी के साथ मिलकर सत्ता में वापसी कर ली और फारुख अब्दुल्ला सत्ता से बाहर हो गये। उस वक्त कांग्रेस और पीडीपी ने जो समझौता किया था उसके मुताबिक तीन तीन साल के लिए दोनों ही दलों के मुख्यमंत्री बनने थे। पहले तीन साल महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री रही और बाद के तीन साल गुलाम नबी आजाद ने कार्यभार संभाला। इस बीच 2004 में हुए चुनाव में एनडीए सत्ता से बाहर हो गई और अब केन्द्र और राज्य दोनों जगह कांग्रेस सत्ता में थी। लेकिन 2008 में ऐन चुनाव से पहले अमरनाथ जमीन विवाद के कारण पीडीपी ने कांग्रेस से रिश्ता तोड़ लिया और राज्य में सभी दलों ने अपने अपने वजूद के बल पर राज्य में किस्मत आजमाया।
क्योंकि 2008 के विधानसभा चुनाव अमरनाथ जमीन विवाद के साये में हुए थे इसलिए राज्य में दो कथित उग्र दलों को इसका सीधा फायदा मिला। जम्मू में बीजेपी को और घाटी में पीडीपी को। 16 सीटों वाली पीडीपी 21 सीट पर पहुंच गई और एक विधायक वाली बीजेपी राज्य में 11 विधायकों वाली पार्टी हो गई। इस चुनाव में नेशनल कांफ्रेस को तो कोई फायदा नुकसान नहीं हुआ लेकिन कांग्रेस नुकसान में रही। हालांकि तीन सीटों के नुकसान के बाद भी राज्य में उसे 17 सीटे हासिल हुए थीं इसलिए राज्य में सिर्फ एक ही रास्ता था कि नेशनल कांफ्रेस कांग्रेस के साथ हाथ मिला ले और सरकार बना ले। राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेस एक दूसरे से कभी हाथ नहीं मिला सकते ऐसे में पीडीपी के उभार ने जो राजनीतिक हालात बदले हैं उसके मुताबिक यह जरूरी है कि दोनों क्षेत्रीय दल किसी न किसी राष्ट्रीय दल के साथ तालमेल करके आगे बढ़ें। इसलिए जो तालमेल पीडीपी ने कांग्रेस के साथ किया था वैसा ही तालमेल अब नेशनल कांफ्रेस ने कांग्रेस के साथ कर लिया और राज्य में सरकार गठित कर ली। हालांकि दोनों दलों में मुख्यमंत्री का पद तो नहीं बंटा लेकिन नेशनल काँफ्रेस ने एक संक्षिप्त विवाद के बाद ताराचंद को उपमुख्यमंत्री की पोस्ट जरूर दे दी।
नेशनल कांफ्रेस ने इस बार यूपीए में हिस्सेदारी की तो आंतरिक व्यवस्था में बदलाव करते हुए फारुख अब्दुल्ला को केन्द्र में भेज दिया और ओमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। ओमर अब्दुल्ला के पास इतना राजनीतिक अनुभव नहीं था कि वे राज्य की बागडोर संभाल सकते, लेकिन क्योंकि वे नेशनल कांफ्रेस की पसंद थे इसलिए कांग्रेस चाहकर भी इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी। छह साल के शासन के दौरान राज्य में ओमर अब्दुल्ला ने कुछ खास ऐसा नहीं किया जिसके लिए उनके शासन को याद किया जायेगा, सिवाय इसके कि अलग अलग मौकों पर वे अलग अलग भूमिका में खड़े नजर आये। कभी पत्थरबाजी की घटनाओंं के बीच वे कश्मीर की आवाम की आवाज बनने की कोशिश करने लगे तो कभी अफजल गुरू की फांसी पर केन्द्र और राज्य के बीच संतुलन साधने में लगे रहे। राज्य में कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के उनके महत्वाकांक्षी ऐलान के बारे में वे कुछ खास कर नहीं पाये।
लेकिन अब विधानसभा चुनाव के ऐलान से ऐन पहले नेशनल कांफ्रेस भी अलग होकर अगर चुनाव में जाना चाहती है तो सवाल उठता है कि फिर छह साल उन्होने किस मुंह से कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाया? राज्य में बीते दो चुनावोंं से नेशनल कांफ्रेस का जो प्रदर्शन है, वह स्थिर है। फिर वे सत्ता में हैं तो निश्चित तौर पर सत्ता विरोधी माहौल का नुकसान भी होगा। ऐसे में क्या नेशनल कांफ्रेस कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव मैदान में नहीं जा सकती थी? कहने की जरूरत नहीं कि अगर जाती तो नेशनल कांफ्रेस घाटे में नहीं रहती। और यह हो सकता था कि दोनों ही दलों की सीटोंं में इजाफा हो जाता। लेकिन नेशनल कांफ्रेस ने अगर ऐसा करना जरूरी नहीं समझा तो निश्चित ही यह नेशनल कांफ्रेस का राजनीतिक अवसरवाद है। वही राजनीतिक अवसरवाद जिसकी चौसर पर कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी के पासे फेंके जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर बीजेपी ने इस बार भी अपना बेहतर प्रदर्शन जारी रखा और नेशनल कांफ्रेस के हालात में थोड़ा भी सुधार हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं कि राज्य में अगली सरकार नेशनल कांफ्रेस और बीजेपी की बन जाए। आखिरकार नेशनल कांफ्रेस को राज्य के साथ साथ केन्द्र में भी मनमाफिक सरकार का साथ चाहिए। फिर वह सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की। हां, अगर पीडीपी ने बेहतर प्रदर्शन किया और कांग्रेस ने भी अपनी कमजोरी दूर कर ली तो हो सकता है अगले छह साल के लिए अब्दुल्ला परिवार फिर सत्ता से बाहर बैठ जाए। 2002 की तरह।
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