ख्वाब और फिर ख्वाब

परी ऍम 'श्लोक'
परी ऍम ‘श्लोक’

सोचा था
अब कोई ख्वाब नहीं सजाऊँगी
जब भी ये टूटते हैं तो
जिंदगी में गमो का
सैलाब आ जाता है
ख़्वाब के रंगदार परिंदे
जब भी पलकों पर बैठते
मैं उन्हें उड़ा देती
इसी जुगत में एक दिन
ख्वाब का सुनेहरा परिंदा
मेरे आँगन में गिर गया
उसे चोट लग गयी
मैंने उसकी मरहम पट्टी की
और पूछा क्यूँ आते हो
जब जानते हो की
बुरी हूँ मैं
संभाल न पाऊँगी तुम्हे
ख्वाबो ने मुझे चूमते हुए कहाँ
मुझे तुम्हारी आँखों में पलना
अच्छा लगता है
और फिर टूट कर
बिखरना अच्छा लगता है
जानती हो
तुम्हारी इन गहरी
आँखों से प्रेम है मुझे
और
प्रेम कभी परिणाम नहीं सोचता !!
© परी ऍम ‘श्लोक’
http://lekhikaparimshlok.blogspot.in/

2 thoughts on “ख्वाब और फिर ख्वाब”

  1. आपका हार्दिक आभार मेरी रचना को इस साइट पर स्थान देने के लिए ….!!

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