क्या साध्वी का मांफी मांगना पर्याप्त है?

sadhvi niranjan jyoti-वीरेन्द्र जैन- केन्द्र सरकार की मंत्री सुश्री निरंजन ज्योति द्वारा दिल्ली में दिये गये भाषण के शब्दों पर जो हंगामा पैदा हुआ, उसे सरकार के प्रचारकों और समर्थकों द्वारा इस तरह से पेश किया गया जैसे दुनिया के सबसे बड़े देश की सरकार चलाना बच्चों का खेल हो और किसी नादान बच्चे द्वारा की गयी गलती को वरिष्ठों द्वारा माफ कर देना चाहिए, क्योंकि उसने माफी मांग ली है। रोचक यह है कि इस मामले में देश के प्रधानमंत्री ने जिन्हें वरिष्ठजन कहा, उन्हें ही अन्य मामलों में पुराने पापियों की तरह चित्रित करते रहे हैं।

इस माफी के लिए जो कारण गिनाये गये वे भारतीय जनता पार्टी जिसे अब मोदी जनता पार्टी की तरह ही पहचाना जा रहा है, को और भी हास्यास्पद स्थिति में खड़ा कर गये। कहा गया कि कथित साध्वी की आर्थिक और ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण उनकी भाषा में वर्जित शब्द आ गये थे। दूसरा तर्क यह दिया गया कि उनके दलित वर्ग के होने के कारण विपक्ष इस तरह की बात कर रहा है जो उनकी दलित विरोधी मानसिकता है। सत्तारूढ दल के कुछ अन्य नेता दूसरी पार्टियों के नेताओं द्वारा पूर्व में दिये विवादास्पद बयानों का उल्लेख करते हुए उनके अपराध को कम करके बताने लगे। कुल मिला कर प्रधानमंत्री द्वारा राज्यसभा में दिये गये स्पष्टीकरण में उनके शब्दों को वर्जित मान लिया गया जिससे उनके समर्थकों और प्रचारकों की मुश्किलें बढा दीं व वे अपनी पुरानी ढीठता से नकारने व अपनी चुनावी जीत को सब तर्कों से ऊपर मानने का सहारा नहीं ले सके। ये लोग यह भूल गये कि अपने कुतर्कों से वे गरीबों और ग्रामीणों का भी अपमान कर रहे हैं। भले ही गरीब और ग्रामीण अभिजात्य की चिकनी चुपड़ी भाषा न बोल कर खुरदरी बोली में देशी प्रतीकों के साथ आपसी बात करते हैं पर सार्वजनिक वक्तव्य देते समय या तो उनकी बोलती बन्द हो जाती है या उनकी भाषा बहुत विनम्र और विनयपूर्ण हो जाती है। इसके विपरीत जब भी अभिजात्य और शक्तिशाली वर्ग मजदूरों किसानों दलितों अल्पसंख्यकों, जैसे वर्ग से बात करता है तो उसकी भाषा में शक्ति की कठोरता आ जाती है व विनम्रता खो जाती है।

विवादास्पद भाषण में निरंजन ज्योति की भाषा उनकी पार्टी की शक्ति के दम्भ की भाषा थी जो अपने विपक्षिओं के प्रति अपनी सत्तारूढ पार्टी की नफरत को सम्प्रेषित कर रही थी। अपने जन्मना अल्पसंख्यक मुखौटे को भाजपा में किराये पर चलाने वाले मुख्तार अब्बास नक़वी जैसे नेताओं का विपक्षियों को दलित विरोधी बताते हुए अपनी पार्टी को दलित पक्षधर बताना तो किसी को भी हज़म नहीं हुआ क्योंकि इतिहास बताता है कि स्थितियां हमेशा उनके कथन की विपरीत रही हैं। भाजपा हमेशा सवर्णों की पार्टी मानी गयी है और सवर्णों का समर्थन भी पाती रही है। आरक्षण सम्बन्धी बहसों में उसने हमेशा ही गोलमोल बातें की हैं। आरक्षित सीटों पर डाले गये वोटों के बहुमत के आधार पर जीत हासिल कर लेने से कोई आरक्षित वर्ग का पक्षधर नहीं माना जा सकता। क्या यह एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा प्रयुक्त की गयी भाषा का सवाल भर है? ऐसा नहीं है। यह उस निरंजन ज्योति की भाषा भर नहीं है जो एक केवट परिवार में जन्मी व अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए बचपन से ही मछलियां पकड़ने और बेचने के काम से धीरे धीरे धार्मिक प्रवचन की ओर मुड़ गयी और भगवा भेष धारण कर लिया। उनके विवादास्पद भाषण में प्रयुक्त की गयी भाषा भाजपा के अनेक मुखौटों में से एक तरह के मुखौटे की भाषा है, जिसे चुनावी दृष्टि से मुज़फ्फरनगर का दंगा कराने वाले उनके नेता देते रहे थे जिन्हें उनकी इसी भाषा के प्रभाव के लिए नरेन्द्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में सम्मानित किया था, और लोकसभा का टिकिट ही नहीं दिया था अपितु बाद में मंत्री भी बनाया। ऐसी ही भाषा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सम्वेदनशील बना दिये गये क्षेत्र में अमित शाह ने भी बोली थी जिसके खिलाफ चुनाव आयोग को शिकायत भी की गयी थी और उस शिकायत का संज्ञान भी लिया गया था, पर जिन्हें उनके पिछले इतिहास के बाबजूद भी पुरस्कृत कर पूरी पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया।

यह भाषा योगी आदित्यनाथ की भाषा भी है जिन्हें उत्तर प्रदेश में अन्य अनेक प्रमुख नेताओं के होते हुए भी उपचुनावों के लिए विशेष ज़िम्मेवारी सौंपी गयी थी और उन्होंने चुनावी लाभ हेतु साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढाने के लिए विवादास्पद बयान दिये थे। उन्हें इस जिम्मेवारी सौंपने के पीछे मोदीजी की जेब में पड़ी हुयी पार्टी ही थी इसलिए वे खुद भी उसकी ज़िम्मेवारी से दूर नहीं हो सकते। गिरिराज सिंह द्वारा चुनावों के दौरान दिये गये ऐसे ही बयानों के बाद उनके पास से बिना किसी उचित हिसाब किताब की दौलत पकड़े जाने के बाबजूद उन्हें केन्द्रीय मंत्री बनाया जाना किस बात का प्रोत्साहन है? प्रशासनिक ईमानदारी, स्वच्छता, कालेधन के खिलाफ कार्यवाही की ढेर सारी लोकलुभावन बातें करने के बाद मोदीजी द्वारा व्यवहारिक रूप में मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ जैसी भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात मंत्रियों वाली सरकारों का संरक्षण दोहरेपन का ज्वलंत नमूना है। इसलिए निरंजन ज्योति की भाषा किसी दलित पिछड़ी निर्धन ग्रामीण महिला की भाषा नहीं है अपितु यह मोदीजी की अपनी  भाषा है जो खुद भी क्रिया की प्रतिक्रिया, और पाँच के पच्चीस जैसी भाषा बोलते रहे हैं। 2002 में कर्मठ निष्पक्ष और ईमानदार मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह के लिए उन्होंने जिस भाषा का प्रयोग किया था वह बहुत ज्यादा भिन्न नहीं थी।

यदि रास्ते में हमें कोई कमजोर व्यक्ति मिल जाता है और हम उसे अपनी गाड़ी में बैठा लेते हैं तो यह हमारी भलमनसाहत का प्रमाण हो सकता है पर उसे ड्राइवर की सीट पर बैठा कर उससे गाड़ी चलवाने के दुष्परिणामों की जिम्मेवारी हमें ही लेनी होगी। अपनी लहर और चुनावी प्रबन्धन के कौशल हेतु अपनी पीठ थपथपाने वालों को बताना होगा कि उन्हें नेतृत्व की जिम्मेवारी देने के लिए उसी वर्ग में बेहतर विकल्प क्यों नहीं मिला व भरपूर बहुमत पाने और अनेक अनुभवी लोगों की जीत के बाद भी उन्होंने उन्हें केन्द्रीय मंत्री पद क्यों सौंपा व दिल्ली में चुनावी सभाएं क्यों सम्बोधित करा रहे थे? निरंजन ज्योति पर चर्चा केवल एक व्यक्ति पर चर्चा नहीं है अपितु विभाजन वाली भाषा के बारीक खेल पर भी चर्चा है जो अपने स्कूलों के जाल को हिन्दू देवी मन्दिर- सरस्वती शिशु मन्दिर- के नाम पर पुकारती है। बोलचाल के सारे शब्दों में मुगलकाल से पूर्व में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में बदलने की कोशिश करती है, जहाँ लाठी डंडा दंड हो जाता है और रोड शो पथ संचलन हो जाता है। डीजल से चलने वाला डीसीएम टोयटा को रथ बना दिया जाता है। यह भाषा की बहस एक सच्ची राजनीतिक बहस भी है जो बार बार नकारे गये साम्प्रदायिकता के एजेंडे की सच्चाई को भी सामने लाती है। इसे संसद के बहुमूल्य समय को नष्ट होने वाले पुराने सत्तारूढों के तर्कों से दबाया नहीं जाना चाहिए।

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