आज जब प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और आकार में दिनोंदिन इजाफा हो रहा है । मानव जीवन के लिए अमृततुल्य जल प्रदूषित होकर विषतुल्य बन विभिन्न व्याधियों और मृत्यु की वजह में तब्दील होता जा रहा है । हमारी प्राणाधार श्वासवायु जीवनदाई ना होकर प्राणघातक बीमारियों को ढोनेवाली महज बोझिल-सी विषैली हवा बन गई है । वसुंधरा की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति को जहरीले रसायन चाटकर बंजर बनाते जा रहे हैं । मौसम चक्र का रूप स्वरुप निरन्तर बदलता जा रहा है । गर्मी में बरसात और बरसात में सूखा पड़ रहा है । ग्रीनहाउस गैसेस की बढ़ती मात्राओं के दुष्परिणाम स्वरुप वैश्विक तापमान उच्च से उच्चतर हीं होता जा रहा है । आज दिग्भ्रमित मनुष्य जंगलों के जंगल काटता जा रहा है और बदले में कंक्रीट के जंगल उगाता जा रहा है । यह बिलकुल वैसा हीं है जैसे मनुष्य कुल्हाड़ी उठा कर स्वयं अपने हीं हाथ-पैर काटने पर आमादा हो ! समुद्रतल दिन-प्रतिदिन ऊपर उठता जा रहा है, आर्कटिक ग्लेशियर पिघलकर अपना वजूद खोता जा रहा है, मिट्टी की घटती उर्वरता और प्रदूषित पर्यावरण की वजह से फ़सल की उत्पादकता घटती चली जा रही है । तो इस पृथ्वी के समस्त प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करनेवाले मनुष्यों का आख़िरकर क्या दायित्व बनता है ? रूद्र के डमरू की अनुगूँज दूर कहीं से आनी शुरू हो गई है अगर अब भी अगर हम मनुष्यों की चेतना जागृत नहीं हुई फ़िर क्या जब सर से पानी गुज़र जायेगा हम उसके बाद जागेंगे ? और जब वक़्त हाथ से निकल जायेगा तब जागकर भी क्या होगा ? ई. सन 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम चरण में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर जो परमाणु बम गिराए गए थे और उससे हुई प्रलयलीला के परिणामस्वरुप रेडियोधर्मिता के जो घाव उत्पन्न हुए वह इतने समयांतराल पश्चात भी अब तक भर नहीं पाए हैं । स्वार्थ में अँधा मनुष्य अगर उस वक़्त ज़रा सी भी दूरदृष्टि से काम लेता तो ऐसा संवेदनाहीन कृत्य कभी ना करता । आज जब प्रदूषण बढ़कर अपने चरम पर जा पहुँचा है मनुष्य अपनी दूरदृष्टि जागृत कर भविष्य की ओर क्यूँ नहीं देखना चाहता ? धरा का अस्तित्व समाप्तप्राय होने की ओर अग्रसर है । पृथ्वी कराह रही है और हम मनुष्य उस कराह को सुनकर भी समझना नहीं चाहते । जागरूक होते हुए भी जागना नहीं चाहते ।

आज पृथ्वी के कण-कण से प्रदूषण के विनाश की भयावहता दृष्टिगोचर हो रही है । अगर हम अब भी नहीं जागे तो विनाश के जो भयानक बादल हमारे सर पर मंडरा रहे हैं उससे ध्वस्त होकर सृष्टि के सम्पूर्ण मानवता की कहानी एक अतीत का इतिहास बनकर रह जाएगी । इस भरीपूरी संसृति का नामोनिशान भी शेष नहीं बचेगा । आज 22 अप्रैल, पृथ्वी दिवस के अवसर पर आइये हम सब धरती को बचाने का संकल्प लें और दूसरों को भी इस महत्वपूर्ण कार्य को करने के लिए प्रेरित करें ।
– कंचन पाठक.