किन्तु यदि आज हम स्वयं से सवाल करें की, हम अपने इन नन्हों के प्रति कितने फिक्रमंद है तब शायद ही कोई अभिभावक होगा जो ना कहे की हम फिक्रमंद कैसे नहीं हैं ? जब भी कभी कोई घटना या दुर्घटना घटती है तो हम एकदम सक्रीय हो जाते हैं आशंकाओं से घिर जाते हैं ।ताजा खबर के अनुसार जोधपुर में एक स्कूली बस के उलट जाने से 24 बच्चे घायल हुए एक लड़की का हाथ कट गया।सभी – उपचार रत। बस में कुल 31 बच्चे थे। उनके घरवालों पर कैसी बीती होगी ? दुखद रहा दिन ,गलती ड्राईवर ने की वो अन्य वाहन से रेस लगा रहा बताया । अब कानून का काम। चलिए ये रोज रोज की ख़बरें बन जाती है कही चोरी लूट तो कही कुछ मगर……
तो जनाब आइये और जानिये जरा, लाडलों के प्रति हम कैसे और कितने है फिक्रमंद हुए जा रहें!
ये नन्हें जबतक बोलना और चलना नही सीख जाते तब तक ही इन्हें प्यार और समय दे पाते हैं।बाद में इन्हें बड़े बुजुर्ग ही संभालते रहे हैं। चूँकि आजकल संयुक्त परिवार प्रथा का अंत सा हो चला है, और अब परिवारों को आवश्यकता अधिकाधिक कमाने की महसूस होने लगी है।तब से ही इन बच्चों को छोटी उम्र ही में स्कूलोंमे दाखिल दिलाकर काफी कुछ राहत महसूस की जाती है। उधर स्कूल भी छोटे बच्चों को ही स्वीकारते हैं। फिर हो जाती हैं इन छोटे बच्चों पर नए जमाने की ट्रेनिंग शुरू।
चाहे मौसम कोई सा हो, सुबह सुबह जल्दी उठना, स्कूल के लिए होना तैयार होना, जल्दी से- नाश्ता करना अपना भारी बैग कन्धों पर लादना फिर बस या अन्य वाहन मे बैठकर रवानगी। इधर सभी- पेरेन्ट्सको भी अपने कामकाज की तैयारी करनी होती है।उधर स्कूल की घन्टी बजती है, बच्चे पहुंचते हैं और
ईश प्रार्थना के बाद तुरंत कक्षा कक्ष में बैठ जाने का दौर फिर पढाई पीरियड्स , होमवर्क कुछ खेल या – पीटी और फिर घर वापस लौटने का दौर..।ज्यादातर यही क्रम हर दिन ….
जहाँतक गुरुओं की बात करें तो आजकल उन बच्चों को ही ठीक समझा जाता है, जो होमवर्क ठीक से कर पाते हैं।बाकी बेचारे डांट फटकार ही खाते है।। आजकल की पढाई भी पहलै जैसी नही रही दिनों दिन हाईटैक होरही है। बच्चो में पुस्तक ज्ञान तो जैसे
ठूंस ठूंस कर भर दिया जाता है। ये बच्चे अपनी मर्जी अथवा जानकारी से उत्तर भी नहीं लिख सकते । बस जो किताब कह रही है वही लिखना पड़ता है।इसीसे किताबी जवाब ही याद क्या बल्कि रटना जैसा होता है। शि्क्षा ऐसी कि, ट्यूटर रखनै पड़ जाते है। कई गुरुओ ने अपने घरो पर ट्यूटोरियल कक्षाएं चला रखी हैं। कक्षा कोई सी हो या विषय हो ये तैयार मिलते है। बढिया पगार के साथ साथ यह उनकी ऊपरी कमाई का एक बडा़ जरिया बन गया है। स्कूलो मे आजकल पहले जमाने जैसी छुट्टिया भी नही होतीं। सबकुछ है निर्धारित मापदंड के अनुसार। जैसे मशीन हो।
माता पिता तो बस इन्हे अच्छे कपडे़, हर साल नई नई किताबे कापियां नया बैग, जूते,टिफन या
कुछ और आवश्यकता की जरूरी चीजें और स्कूल की
भारी भरकम फीस चुकाते ही नही थकते। सरकारी स्कूलो का हाल अबतक बेहाल है कही शिक्षक नही हैं तो कही भवन ही नही है। अव्वल तो नामी स्कूल्स मे दाखिला ही बडी जोर आजमाइश का काम होता है। यों अच्छे और नामी स्कूलो में लाडलों का एडमिशन कराने के बाद रहत तो पाते हैं लेकिन पेरेन्ट्स यदाकदा ही वहा जाते है। उन्हे पूरा पता ही नही कि, उनका होनहार अन्य साधन या बाल – वाहिनी मे बैठकर किस किस रूट से आता जाता है।स्कूल मे उसके साथी कौन हैं। स्कूली वाहन का ड्राईवर कैसा है? इसकी चिंता न पेरेंट्स को है और ना ही स्कूल वालों को होती है।बस का स्टाफ भी कितना जिम्मेदार या सजग है ? परखे कौन ?
अपने बच्चों की फिक्रमंदि के सवाल पर लगभग सभी का जवाब होता है, भाई हम तो अपनी नौकरी करें या बसों के आगे पीछे भागें ? यह सही भी है।लेकिन पहले ऐसा नहीं था। हम पहले अपने बच्चों को खुद स्कूल लाया-लेजाया करते थे।इस कार्य को भी अपनी जिम्मेदारी मानते रहे थे।मेरा कहने का मतलब यह कतई भी नहीं की, बच्चे बस से ना जाए। लेकिन संभालना भी हमें ही है।बहुत से अभिभावक आज भी
ऐसा ही करते हैं।कारण समयाभाव और भागम भाग ही नजर आता है।सबसे बड़ा सवाल यह की आज वक्त कम मिलपाता है।आप सड़कों पर कही एक- मिनट रूककर देखे, लगता है सभी ना जाने किधर को भागे चले जा रहे हैं ?
वाहनों का भारी दबाव, बिगड़ती ट्रैफिक व्यवस्था,जाम होती सड़कें और बढ रहा प्रदुषण सभी तो चीख चीख कर कह रहे हैं ,” ऐ इंसान जरा सब्र कर” ! मगर जनाब कहाँ ठहरता है कोई ।यदि आपको अपना वाहन मोड़ना है तब भी कोई रुकेगा ही नहीं । हॉर्न सिग्नल सभी जैसे बेबस और बेकार ! सारा का सारा विकास, और समझदारी गई घास चरने ।
पहले के समय में घर की दादी नानी बड़ी अम्मा आदि स्कूल से घर आने पर अक्सर अपने पास बैठाकर उनसे बतियाते समय ही, अपने धर्म कथाओं को साधारण कहानी के रूप में बच्चों को ज्ञान और संस्कार की घुट्टी पिला दिया करती थीं। रीतिरिवाज से भी नवाज लिया जाता था बचपन । लेकिन अब तो सबकुछ सपना सा नही लगता ? सच पूछो तो समय ही घट गया लगता है। सबको अपनी अपनी ही पडी हो जैसे ?
ऐसे समय के दौर में मैं पेरेन्ट्स को दोषी इसलिए भी नही मान सकता कि, उनका रोजमर्रा का जीवन इसी रफ़्तार में कहीं खो गया है। महंगाई की मार, काम काज का भार ऊपर से आज पानी बिजली के करंट मारते बिल जमाकरने है।बच्चों की स्कूल की भारी भारी फीसें भरनी है । तो आज दादी बुआ या रिश्तेदार आने को है, राशन लाना है, फलां बीमार है
मिलने पहुंचना है।गाडी़ मरम्मत को देनी है। वगैरह वगैरह के फेर मे जीवन ही जैसे मशीन नहीं हो गया है।
कैसे भी करके इन नन्हों के लिए इन सब के बीच से समय काटकर निकालना ही होगा। वरना ये टीवी और मोबाइल इन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा । और ये मन ही मन हमसे दूर होते चले जाएंगे । इसीसे ……
चूँकि यही हैं हमारे कुल दीपक , समाज और देश का नाम ऊंचा करने वाली नई पीढी, ढेरो आशाएं है इनसे। फिर हम भूल जाते है , इनका भी तो मन करता है, अपनो का साथ पाने को ! अपने बिजी टाईम शिड्यूल से काटिये छांटिए कुछ भी कीजिए किन्तु इन नौनिहालों के लिए थोड़ा वक्त जरूर से निकालिए और खो जाइये कुछ पल के लिए इनके साथ,आप भी जरा बच्चे हो जाइए बस इतना ही……|
