निर्भया मामला : …और नाबालिग दरिन्दा रिहा हो गया

शमेन्द्र जडवाल
शमेन्द्र जडवाल
सुप्रसिद्ध विचारक वाल्टेयर ने कहा है –“आंसू दर्द की मौन भाषा है”।
खबरों में अक्सर महिलाओ की गुमशुदगी। नन्ही बालिकाऔ पर हो रही अमानवीय – दरिंदगी, अत्याचार, न्याय न मिलना जैसी घटनाये पढ़कर देश में ही कई बार ऐसा लगा है की ,”बेटी- बचाओ बेटी पढ़ाओ” सब बड़े-बड़े पोस्टर्स पर लिखे रंगीन और चमकते हुए कोरे नारे ही हैं! महिलाओं को प्रदत्त सभी अधिकार कभी कभी तो बेमानी से ही लगने – लगते है ? ताजा घटना के अनुसार देश को हिलाकर रख देने वाले दिल्ली में तीन साल पहले घटित घृणित निर्भया मामले में क़ानून के नजरिये से अब वो गुनहगार बच कर निकल गया है, जिसे – नाबालिग होने का पूरा लाभ मिल गया। एक ऐसा नाबालिग जो दुष्कर्म तो करता ही है लेकिन क्रूरतम तरीके से “पीड़िता को लोहे की रॉड – घुसा कर कहता है ले मर।”
सवाल है क्या ऐसा दरिन्दे को आजाद किया जाना ही क़ानून का नजरिया है ? सर्व विदित है,कानून के हाथ बंधे है। दिल्ली में कडाके की सर्दी में पीड़िता के माता पिता की आवाज भी दब कर मुरझा गई है। लोगों के साथ उन्होंने प्रदर्शन किया न्याय की गुहार लगाईं लेकिन सभी व्यर्थ सिद्ध हुए। यहांतक की महिला आयोग की और से पेश अर्जि भी बेकार। सभी कीमांग थी की ऐसे दरिन्दे को आजाद ना किया जाए ।
निर्भया की माँ के मुख् से निकले शब्द” अच्छा हुआ निर्भया तुम मर गई वरना आज हम तुमसे नजरें नहीं मिला पाते”। कितने मार्मिक और दिल को छू लेने वाले हैं उस समय निकले ये शब्द, गहरे में उतर गएहैं ।
ये शब्द तब निकल गये जब प्रशासन ने उन्हें धरने से ही जबरन उठा दिया। अपनी बेटी के लिए पिछले तीन
साल से न्याय पाने का इन्तजार करते माता पिता और उनके संयोगी जन कर भी क्या सकते थे।
देश में ही इतने दमदार आंदोलन के बावजूद भी ऐसी घटनाये रुकी नहीं है। लगता तो यह भी हैकि
ऐसे घ्रणित और कुत्सित वि्चार पालने वाले गुंडों को
किसी भी तरह से यहाँ कानून का भय नहीं है।कानून की उम्र के प्रति उदारता की भी परवाह कहाँ और किसे है ? मैं यह तो कतई नही कह सकता की न्यायालय अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहीं ! उनका काम कानून की प्रक्रिया के तहत ही तो चलता है।और वहां जज्बातों के कोई मायने भी नहीं होते।
कानून की चपेट में आज भी कई निर्भया हैं जो
न्याय पाने को तरस रही हैं। क्या कीजे जब कानून बनाने वाली देश की माननीय संसद ही में समय पर कानूनों में सुधार नहीं हो पाते, बदलाव के उनमे एकता नहीं दिखाई देती।कारण चाहे जो हों ।चुनावों के समय
जनता को दिए वादे सब हवा होते रहे है। शायद- इसलिये कि जनता को 5 साल में सिफ वोट देने का अधिकार ही तो मिला है । इन नेताऔ को तो बेचारी जनता वापस भी नही बुला सकती ।अधिकार बनने ही नही देते ? और तो और बतोले बांटने वाले ये नेता अपनि पगार बढाते समय या हित और सुविथाए लेते समय सारे आपसी प्रदर्शित विरोध, दबाव पार्टीबाजी भूल कर एकता का परिचय दे बैठते है।ऐसे जैसे देश की फ़िक्र केवल इन्हें ही रह गई है। यो अक्सर संसद ही में एक दूजे को नीचा दिखाने की होड सी लगी रहती है होहल्ला करना जनता के पसीने से अर्जित कमाई को पानी में जाते देख, मन मार कर चुप चाप देखते रहना होता है ?
और जिस बात के लिए जन मानस विचलित है उस पर कुछ नहीं होता ।इन हालातो के चलते कभी कभी ऐसा लगता है की निपटने के लिए अब जनता ही को कुछ करना न पड़ जाय? समय तो अब यही कुछ कहता लग रहा है ,इसीसे ….

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