और एकदम सभी गिरने लगे हैं, आसमान से धरती की ओर नीचे और नीचे। एक चीख सी निकल गई थी जैसे मेरी तो। कुछ ही पलों में जब आँख मली तो देखा मैं वापस वहीं पहुँचा दिया गया हूँ
जहाँ से चला था। आवाजों के जंगल मे फिर वही – स्लोगन सुनाई देने लगे थे, जिन्हें मैं अपने भीतर तक से झाड़ पौछकर ऊपर उठता चला गया था। सोच रहा था, ना जाने किस नामाकूल की वजह से मैं छू न सका
उन बेहतरीन पलों को उन चाँद और सितारों को। मेरे
नथुनो मे फिर से वही गंध घर करने लगी, जिसे मैनै प्राणायाम के जरिये बाहर धकेल दिया था
लोग थे कि, हाथों में इनटालरैंस और देश को तोड़ देने वाले शब्दों की प्रिंटेड तख्तियाँ लिए नारे लगाते चल रहे थे , शायद कोई जुलूस ही गुजर रहा था, मेरे सामने से और ‘मैं ‘ हाँ वो मैं ही था जो सड़क किनारे एक बूढे़ पेड़ के नीचे खड़ा चुपचाप यही सोच रहा थाकि, ‘क्या हो गया है, इन्ही लोगों को, अभी अभी तो मेरे साथ थे ऊपर…! यह सही है कि, आदमी होकर भी आदमी को पहचान पाना कितना मुश्किल ही नही , असंभव सा लगता है कभी कभी? भीतर-बाहर उसकी दुनिया अलग होगई है । हाथी के दाँतों की मानिन्द जो खाने और दिखाने मे अलग अलग प्रयोग होती है।
बहरहाल इतना सा सुकून जरूर था दिल को मेरे कि, कम से कम ‘मै’ तो अलग होगया था उस भीड़ से जो जज्बातो पर सवार हुए बेवजह तोड़ रही है इंसानियत को ही।
अंतहीन सी उस भीड़ में कुछ लोग बिना कुछ कहे , बस बेवजह समर्थन मे हाथ उठाए चल रहे थे, धकेले जा रहे थे किसी रुहानी ताकत से जैसे ? कि, अचानक, ज्यों हवा का एक तेज झौंका सा आया, देखा कुछ लोग छटपटा रहे थे, वापस लौट जाने को, बेकरार से…. लेकिन यह क्या पीछे तो रास्ता ही ढह चुका था, अब। चीत्कार करती हवाओ का दौर तेज होता जा रहा था, मैं खुद अपने आपको रोक नही पा रहा था, कुछ भी कह पाने मे अक्षम और लाचार….. मैने देखा कि, अरे! मेरा अस्तित्व तो वही छूट गया था ऊपर उसी भीनी सुगन्ध वाले आसमां तले।
यहाँ पतझड़ सी शुरुआत उग आईं है, हरकोई पत्ते सा काँपता कँपाता अपने आपको बूढे़ वृक्ष से खींचकर अलग कर दिये जाने का दुख बाँट नही पा रहा है जैसे……। उड़ रही है के इन चार दिनों से घटित अखबारो की सुर्खियों वाली ‘कटिंग्स’ मेरे इर्द गिर्द बेबस हवाओं सी । जिनमे , आपस मे मारने व पीटने , कोर्ट कचहरी की बाते, देश तोड़ने,और नेताओं की पक्ष विपक्ष जैसीे बयानबाजी थे । एक सवाल उग आया है जहन मे “खून का रंग” गहराता किसलिए जा रहा है ? फिर सोचा करना क्या है मुझे अब इन्हें संजोकर भी। जब ‘मैं’ ही बचा नहीं हूँ यहाँ…….!
