बलराम हरलानीभोला सा बचपन । किसी और नहीं मेरे नायक का । शायद ही ऐसा कोई बच्चा हो जिसे अपनी पहली साईकिल की ख्वाइश नहीं हो । बस मेरे नायक को भी बचपन में अपनी खुद की साईकिल का शौक था, वो साईकिल जिसमें वो खुद अपना लाॅक लगा कर उसकी चाबी हमेशा, रात को भी अपने पास ही रख सकता हो । स्कूल जाते समय कई साइकिल की दुकाने आती रोज़ उन्हें घूर घूर कर देखता । स्कूल बस कितनी भी आगे चली जाये पर उसका ध्यान उस साईकिल की दुकान पर ही रहता था । पता नहीं कौन सी खरीदनी है बस साईकिल चाहिये थी पहली साईकिल । बस समस्या वो ही मध्यमवर्गी पहले तो बडे भाई बहन व घर की जरूरतें पूरी हो तब कहीं जा उस बालक की साईकिल का नम्बर आये । पर भगवान बडा दयालु हैं सब की मुराद पूरी करता है । नायक के मामाजी के घर में एक बहुत बडी शादी का आयोजन हुआ । मामाजी भी बहुत धनवान व नायक परिवार से विशेष प्रेम । नायक की मम्मी ने एक योजना बनाई साइकिल का बोझ पिता के कंधों पर नहीं डालेगें । बस शादी हो जाये उसके बाद तुझको नई साइकिल दिला दूंगी । संकट बडा था । हां तो भर दी पर ना जाने कैसे पूरा होगा । शादी में मामाजी के यहां से सब को लिलाफे मिले । अलग अलग रस्मों में अलग अलग लिफाफे मिले । आशा और गहरी हुई । जैसे ही घर आये बिस्तर पर बैठ कर सारे लिफाफे खोले गये । नई साइकिल की कीमत में कुछ रकम कम थी । एक अजीब सी मायूसी हो गई माहौल में । नायक तो रो पडा । एक चांस था वो भी गया । मेरी तो तकदीर ही फूटी है । पर भगवान बडा दयालु हैं । मौसीजी का फोन आया नायक की मम्मी के पास, अरे वो तेरा आरती वाला लिलाफा मेरे पास ही रह गया है शाम को दे दूंगी । बस शाम हुई लिलाफा आया । दयालु भगवान ने पूरे पैसे का इंतेजाम करवा दिया । अगले दिन नई साइकिल आ गई । नायक उस रात सोया भी नहीं । खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था ।
सच्चे दिल से कोई इच्छा हो तो वह जरूर पूरी होती है । बस विश्वास रखना पडता है ।