गाँधी जी ने साउथ अफ्रीका होते हुये हिंदुस्तान के लिए ऐसा रास्ता बनाया कि आजादी के बाद हर सरकार, हर नेता, यहाँ तक कि हर महात्मा भी यही कहता है कि हमे बापू के बताये रास्तों पर चलना चाहिये। लेकिन चल कोई नहीं पा रहा। खोजने पर पता चला ,शुरू-शुरू में देश की सरकारें भारी बहुमत से आती थीं। बहुमत के बोझ से दबी होने के कारण आगे नहीं बढ़ पाती थी। परिणामतः गांधी के रास्तों पर चलने की हसरत अगले चुनाव तक इस नारे के साथ कि हमे आगे बढना है, स्थगित हो जाती थी।
उसके बाद गठबंधन का जमाना आया। लँगड़ी सरकारें आने लगी। वे चलने फिरने की छोडो, हिलने तक में भी हिल जाती थीं। इसलिये सभी रास्तों पर उन दिनों केवल ऊँघने का राष्ट्रिय कार्यक्रम चलता रहा।गाँधी-जयंती पर नशाबंदी के पीछे शायद यही दूरदृष्टी रही होगी कि ऐसी स्थिति में भी कम से कम कोई सरकार एक दिन तो पूरे होश में अपने पैरों पर खड़ी रह कर दिखा सकेगी। कुल मिलाकर इन परिस्थितियों में किसी भी सरकार के चलने की सोचना ठीक ऐसा ही है ,जैसे नगरवधू से सात्विक चाल-चलन की उम्मीद करना। इसे भी ठीक-ठाक तुलना नहीं कहा जा सकता क्योंकि नगरवधू की मजबूरियां अलग तरह की होती है। बहरहाल, लँगड़ी-लूली सरकारों के लिये अपनी टांग और टाँग- खिंचाई के बीच गान्धी-मार्ग में टांग-फँसना सम्भव ही नहीं था ।
काफी सालों बाद ,बल्कि उनकी खुद की नजर में तो पहली ही बार, देश में ऐसी सरकार आई है जो गांधी के रास्तों पर सरपट दौड़ने के इरादे से दुनियाँ भर की जमीन हवाई जहाज से नाप रही है। चूँकि सरकार हवा के कंधो पर सवार होकर आई है, इसलिए उसका हवा में उड़ना लाज़मी है, सो उड़ रही है। हवा में इतनी ऊपर से गांधी का रास्ता साफ़ नजर नहीं आ रहा था इसलिये सरकार ने सबसे पहले रास्तों की और रास्ते में आने वालो की सफाई के लिये ‘स्वच्छता-अभियान’ चलवाया।अभियान के रास्ते में झाड़ू आ गई, जिसने राजधानी में ही किये कराये पर झाड़ू फेर दी। ग़ांधी जी का रास्ता फिर आँखों से ओझल हो गया। वैकल्पिक रास्ते की खोज में पता चला कि गांधीजी इंग्लैंड में पढ़े थे। अपनी अंग्रेजी से अंग्रेजों को खदेड़ कर एक नया रास्ता बनाया था। इस बनाने को ध्यान में रखकर सरकार ने “मेक इन इण्डिया” “स्टार्टटप इंडिया” से इण्डिया को बनाना और चालू करना शुरू किया ताकि रास्ता नजर आये। लेकिन गांधी के रास्तों पर ‘बनाने वाले’ और ‘चालू’ दोनों का ही प्रवेश निषेध मिला, अतः गांधीमार्ग खोजने का यह रास्ता भी पूंजीवाद की गलियों में कही ग़ुम हो गया।
इस बीच ये अफवाह उडी कि धर्म के रस्ते गांधी मार्ग तक पहुंचा जा सकता है। कर्मयोग के सहारे महान मार्ग को पहचाना जा सकता है। ये रास्ता सरकार और जनता दोनों का जाना पहचाना भी है। अतःसरकार ने इस रास्ते पर अनेक साधु,साध्वी,,सन्यासी,स्वामी,छोड़े।स्थाई रूप से छोड रखे हैं। पर वे खुद कोई रास्ता नहीं जानते हैं, बीच रास्तों में ही मजमा लगाकर बैठे हैं। मजमे में मजा है ,रास्ता नहीं।
आखिर में सरकार को यही रास्ता सूझा कि गांधी के रास्तो की खोज वही से की जाए जहाँ से उन्होंने रस्ते बनाने की यात्रा शुरू की थी।तुरन्त पहुँच गई साउथ अफ्रीका की उसी ट्रेन में बैठने जिसने मोहनदास को महात्मा बनाया था। ट्रेन भी गुजर गई, हाथ हिलाये, फ़ोटो खिंचवाई पर रास्ता कहीं नहीं दिखा। निराश सरकार वापस आ गई । रास्ते के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इधर गोडसे के मंदिर के लिए भी सरकार की और से नैतिक सहायता प्रदान की जा रही है, क्या पता गोडसे गॉड- स्टाइल में कोई रास्ता सुझा दे। सम्भवत: किसी आयोग या समिति का भी गठन हो सकता है जो गांघी जी का रास्ता ढूंढते-ढूंढते उन्हें ही रास्ते पर ले आये।
समझ नहीं आ रहा जो रास्ता हर शहर ,गाँव ,गली से होकर गुजर रहा है , जिस पर सरकारें और उसकी कारें फर्राटे से दौड़ रही है ,वह गांधी- मार्ग उन्हें क्यों नजर नहीं आ रहा। कारण साफ़ है (सर) कारों की चमक और चश्मों में गांधी मार्ग का बोर्ड पढ़ने में ही नहीं आता है।
गांधी का रास्ता ना बहुमत में है, न गठबंधन में, न किसी नारे ,अभियान में। वह तो सत्य, सादगी और संवेदना की पगडंडियों पर मिलता है। सत्ता की चमचमाती सड़के तो गांधी के नाम की तख्तियां अपने गले में टांग भर लेती हैं ताकि हम उन्हें उनके नाम से ना पुकार सके।
रास बिहारी गौड़
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