अभी तक अपने पढ़ा….
नीला रंग
हां.. कितनी आसानी से कह दिया तुमने.. जब सुबह अखबार में मेरे बारे में पढ़ोगी तब मुझे आखिरी बार देखने आ जाना.. मेरी अधूरी कहानी को पूरा होते देखने के लिए…
एक बार भी नही सोचा तुमने क्या बीतेगी मुझपर..तुमने सिर्फ अपने बारे में सोचा.. एक बार फिर तुमने बाज़ी मार ली और एक बार फिर मुझे अकेला कर गए…
हां..मुझे नीला रंग बहुत पसन्द था मैं जानती हूँ तुमने मुझसे कभी कुछ नही माँगा और जब माँगा भी तो क्या..उसी दिन से मुझे नीले रंग से नफरत हो गई.. मुझे नही पता ये नीला रंग तुम्हे मुझसे हमेशा के लिए दूर कर देगा..तुमने अपने मन की बात खत के ज़रिये मुझ तक पंहुचा दी लेकिन मै क्या चाहती हूँ ये जानने की कभी कोशिश भी न की..
ह्या के मारे हमेशा चुप ही रही मैं.. बहुत चाहा पर तुमसे आँखे मिला न सकी..दिल का हाल तुम तक पंहुचा न सकी..सोचा था समझ जाओगे खुद ही..पर चाह कर भी कुछ तुम्हे बता न सकी..
हां फिर मेरी शादी हो गई और मैं ससुराल चली आई..लेकिन शरीर मात्र के चले जाने से कहानी खत्म नही हुई बहुत कुछ यही छूट गया था..साथ गई थी तो केवल बचपन की अनमोल यादें…
जिनसे तुम हमेशा अंजान ही रहे..ये तो मैं जानती थी कि तुम मुझे पसन्द करते हो..हर रोज़ तुम्हारा मेरे कॉलिज तक पीछे पीछे आना मुझे बहुत अच्छा लगता था..रास्ते में मुझे लेकर तुम्हारा किसी से भी उलझ पड़ना मेरे प्रति तुम्हारे अपनापन का अहसास कराता था..मेरा अपने घर के गेट के अंदर तक पहुचने के बाद तुम्हारा वापिस जाना मानो एक अजीब से सुख का अहसास कराता था…
उस दिन मेरे बालों से रिबन का गिरना संयोग मात्र नही था मैंने जान बूझ कर रिबन की गिरह को ढीला बांधा था..और फिर वही हुआ जो मैं चाहती थी ..तुम्हारा झुककर रिबन को उठाना और फिर बड़े प्यार से तह लगाकर अपनी जेब में रख लेना मुझे बहुत अच्छा लगा था..लेकिन मैं अंजान सी बनी वहा से चली गई…
मैंने तुम्हे कभी आभास तक नही होने दिया कि मुझे तुम्हारा रोज़ बालकॉनी के नीचे आना कितना अच्छा लगता था..कितना इंतज़ार रहता था मुझे तुम्हारा..तुम्हे आते देख मैं अपने गीले बालों के साथ बालकॉनी में आ जाती थी..आज भी याद आते हैं मुझे वो दिन आज भी मै बालकॉनी में आती हूँ पर् तुम नही आते…
तुमने मेरा इंतज़ार न किया और खत पकड़ा कर चले गए..मुझे अपनी बात कहने का मौका दिए बगैर..ये मेरी बदकिस्मती नही तो और क्या थी..मै मायके आ गई थी कभी वापिस न जाने के लिए..मैं तुम्हे बताना चाहती थी पर तुम्हे अचानक सामने पाकर कुछ बोल ही न पाई और बचपन की मोहब्बत को एक बार फिर से मैंने खो दिया हमेशा के लिए..
बेपनाह मोहब्बत करके भी तुम्हे बता न सकी..तमाम उम्र अपनी बेबसी पर रोती ही रही..मैं कल भी तन्हा थी आज फिर से तन्हा हो गई…
तुम मेरी उम्मीद की किरण थे मगर नसीब में नही.. उस दिन के बाद मैंने अखबार पढ़ना छोड़ दिया और खुद को अपने कमरे से बालकॉनी तक कैद कर लिया..जहाँ मैं रोज़ तुम्हारा इंतज़ार किया करती थी और आज भी करती हूँ और हमेशा करती रहूँगी..शायद तुम कभी तो आओगे…
एक उम्मीद दिल में लिए हुए तुम्हारी राह तका करती हूँ..
दूर तक जाती हुई सुनसान राह..
माना कि मेरी किस्मत में नही थे तुम..पर दिल में मेरे हमेशा रहोगे तुम…
– रश्मि डी जैन
नयी दिल्ली