तुम इतने ‘मुलायम’ हो गए कि डॉ लोहिया और उनके खवाबो का समाजवाद बहुत पीछे छूट गया !
तुम्हारी जबान पर अब डॉ लोहिया का नाम अच्छा नहीं लगता।
गंगा जमुना के मैदान में कभी तुम गरीब और वंचितों के लिए उम्मीद की हवा के ताजा झोंके की मानिन्द आये थे। तुम्हारे भीतर लोग ‘ देशज भारत” की खुश्बू महसूस करते थे।
कभी तुमने हिंदी के नारे बलन्द किये थे। क्योंकि डॉ लोहिया ने अंग्रेज की गोली और अंग्रेजी बोली पर हमला बोला था। पर जल्द ही पता चला आपका बेटा विदेश में तालीम लेने गया है /
डॉ लोहिया ने अपने जीते जी अनेक ‘ जाति तोड़ो ‘ सम्मेलन किये थे। वे कहते थे ” जाति अवसरो का रास्ता रोकती है ,अवसर न मिलने से योग्यता कुंद हो जाती है। और कुंठित योग्यता फिर अवसरों को बाधित करती है ” / पर आप इतने मुलायम हो गए कि डॉ लोहिया के उसूलो के बरक्स समाजवाद को कुनबे तक महदूद कर दिया।
गर डॉ लोहिया के विचारो के प्रति तुम्हारी वफादारी होती तो योगेंद्र यादव तुम्हारे सबसे करीब होते। समाजवादी विचारक और प्रखर लोहियावादी स्व किशन पटनायक भी दूर रहे। स्व पटनायक 2004 में दुनिया से रुखसत कर गए।
लोग डॉ लोहिया को पढ़ पढ़ कर सीखे है। तुमने तो उनको देखा है,उनके मातहत आंदोलनों में शिरकत भी की /पर तुम्हारे सत्ता के एजेंडे में न रामायण मेले थे ,न जाति तोड़ो सम्मेलन। डॉ लोहिया रामायण मेले आयोजित करते थे। लोग भूल जाते है मशहूर चित्रकार ऍम फ हुसैन ने डॉ लोहिया की प्रेणना से रामायण मेले के लिए अपनी कूंची चलाई थी। उस दौर में डॉ लोहिया की हुसैन से हैदराबाद में पहली मुलाकात हुई। डॉ लोहिया ने उन्हें कहा -क्या टाटा बिरला की तस्वीरे बनाते हो ,तुममे प्रतिभा है ,रामायण को कैनवास पर उतारो। फिर उस कलाकार की कूची रामायण के पात्रो के लिए कभी नही रुकी। पर मुलायम सिंह जी तुमने क्या किया ?
तुम्हारी राजसत्ता के आंगन में कभी डॉ लोहिया के सिधान्तो और सपनो को उतरते नही देखा गया। इसलिए डॉ लोहिया का नाम आपके मुह से सुनकर अच्छा नहीं लगा। डॉ लोहिया कहते थे -मेरे पास कुछ नहीं है ,सिवाय इसके कि हिंदुस्तान का आम आदमी और गरीब गुरबे मुझे अपना समझते है। पर क्या आपके बारे में कोई ऐसा कह सकता है ? आप ऐसे समाजवाद के वाहक बने जो देश के सबसे अमीरी व्यक्ति के जरिये लाया जा रहा था [सन्दर्भ अम्बानी ]
क्या कहे ?
युवा मुलायम सिंह इटावा -मैनपुरी में अखाड़ो में दाव आजमाते तो अच्छे अच्छे पहलवान चित हो जाते। फिर तुमने पहला चुनाव अपने कुश्ती गुरु नत्थू सिंह के गृह नगर जसवंत नगर से लड़ा और 1967 में पहली बार विधान सभा में पहुंचे।यह नियति का खेल है या सियासत का बिगड़ा मिजाज ,अब तुम जिस कुश्ती में निपुण हो गए हो ,उसे ‘नूर कुश्ती ‘ कहते है।
वास्तव में तुम ‘अमर ‘ हो गए !
तुम्हरा पूर्वार्द्ध बहुत सुनहरा रहा है ,लेकिन उत्तराद्ध में तुम ‘अमर’ हो गए। र
किसी शायर ने ठीक ही कहा है -बुलंदी पर इन्हें मिट्टी की ख़ुशबू तक नहीं आती
ये वो शाखें हैं जिनको अब शजर* अच्छा नहीं लगता/
[*वृक्षः]
सादर
