इस देश के उत्सव खतरे में क्यों है? जीवन से उत्सव क्यों गायब हो रहे हैं? जो उत्सव हमारी परम्परा और हमारे स्वभाव में शामिल रहे हैं, उनका क्षय क्यों हो रहा है? समृद्ध उत्सव की परम्परा क्यों मात्र औपचारिकता बनती जा रही है? परम्परागत उत्सवों पर क्यों तथाकथित आधुनिक या आयातीत उत्सव भारी हो रहे हैं? इन सवालों का जवाब निश्चित तौर पर ढूंढा जाना चाहिए। इसके प्रति उदासीनता हमारे मन-प्राण और जीवन को रसहीन करनेवाली है।
भारत को यह उत्सव-प्रिय जीवनशैली फिर से पाने के लिए अपने भीतर गहरे उतरने की जरूरत है। क्योंकि देश और समाज की उत्सवप्रियता उसकी रचनात्मकता कोे विकसित करती हैं, उससे सकारात्मक नजरियों में इजाफा होता है। भारत की यही विशेषता सदियों से रही है। इस उत्सव को हमें फिर से तलाशना होगा, सबसे पहले तो अपने हृदय और मन में, अपने जीवन और मानसिकता में, सामाजिक सोच एवं सरकारी नीतियों में। बाहर का उत्सव सिर्फ अंदरूनी उत्सव की प्रतिध्वनि या प्रतिरूप हो सकता है, अगर ऐसा नहीं है तो सिर्फ एक दुखद अस्तित्व की गवाही देगा। उत्सव हमारे जीवन को अर्थ देता है- एक ऐसा जीवन जो प्रकृति से एकरूप हो, जिसमें सच्ची सामाजिकता हो, जिसमें आत्मसाक्षात का भाव हो।
आज के तनाव-भरे तथा बंटे हुए समाज में उत्सव को प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। अगर हम आज की बाजारवादी संस्कृति के दौर में अपनी उत्सव-परम्परा को जीवित कर सकते हैं तो मानवता के लिए यह बहुत बड़ा योगदान होगा। इससे ने केवल हम एकजुट होंगे बल्कि उससे प्रेरणा पाकर हम वसुधैव कुटुम्बकम एवं मानव कल्याण की ओर भी अग्रसर हो सकते हैं। उत्सव के मूल उत्स में यही भावना रही है।
आदमी ने जीवन को इतनी ऊंची दीवारों से घेर कर तंगदील बना दिया कि उत्सव तो क्या, धूप, प्रकाश एवं हवा को भी भीतर आने के लिये रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं। न खुला आंगन, न खुली छत, न खुली खिड़कियां और न खुले दरवाजे, उत्सव के भीतर आए भी तो कैसे? भारतीय परम्परा उत्सवप्रधान रही है, यहां के उत्सव सिर्फ विनोद ही नहीं बल्कि लोकमंगलकारी भी होते थे। इससे चेतना एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विकास होता था। हमारे यहां नाच-गाने प्रसन्नता, ऊर्जा और उत्साह का बोध कराते रहे हैं। गृहस्थी हो या अन्य तपस्वी-संत, त्यागी हो या भोगी- सभी नृत्य पर रीझ जाया करते थे। तब उत्सव का संबंध प्रकृति के साथ था। आज भी कहीं-कहीं फसलों के समय नाच-गाने की परम्परा मौजूद है। इसी उत्सवप्रियता ने अनेक अवसरों पर मेले का रूप लिया। उन मेलों का संबंध समाज और धर्म से ही रहा है। रामलीला हो या दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा हो या दीपावली, शिवरात्रि हो या जन्माष्टमी, कार्तिक पूर्णिमा हो या माघी पूर्णिमा-इन अवसरों पर व्रत-उत्सव के साथ-साथ सांस्कृतिक-मनोरंजन का माहौल अब भी बना हुआ है।
उत्सव, ऊर्जा की हिमालयी मुस्कान है। उत्सव, संघर्ष के विराट मंथन से निकला अमृत क्षण है। उत्सव, जीवन की पगडंडियों पर रखे दीप हैं। उत्सव, तम की, निराशा की, अवसाद की, दुख और अकेलेपन की काली कंदराओं को चीरकर फूटने वाले आनंद स्रोत है। इसीलिए अपनी अंगुलियों के पोर-पोर पर उत्सवी घड़ियां सजाए बैठा है जीवन। आहटें पास आ रही हैं। विदा लेता हुआ शरद एक बार फिर जाते-जाते धरती को उत्सवी रंग सौंप गया है, फिर भी मनुष्य मन पर अंधेरा क्यों टंगा है?
सवाल यह है कि क्यों हमारी वह उत्सवप्रियता गायब होती जा रही है? सोचने की बात यह है कि हमारे साथ कुछ अघटित घट रहा है क्या? कुछ ऐसा जो पिछले किसी युग में नहीं घटा? आज हम ऐसा शोर मचाए हैं जैसे पूरी मानव सभ्यता के संपूर्ण इतिहास में केवल हम ही संघर्ष और दुखों से घिरे हैं। दुख और विषमताएं जीवन में कब नहीं थी? अभाव एवं पीड़ाएं तो शक्ल बदल-बदल कर साथ चली है। दुनिया गरीबों से कब खाली थी? उच्चता और निम्नता का भाव भला किस समाज में नहीं था? सांस्कृतिक संघर्ष कब नहीं हुए? पारिवारिक द्वंद्व, बिखराव, असन्तुलन, असमानता और अभाव की पीड़ा किस युग ने नहीं झेली? राम, कृष्ण और बुद्ध-विस्थापन का दर्द इन महानायकों ने भी भोगा था, फिर पीड़ा के ये ऐसे कौन से अध्याय हैं, जो समय ने केवल हमारे लिए लिखे हैं? हम ऐसे भाव में क्यांे हैं, जैसे सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है? फिर हम इन कारणों से क्यों उत्सव की परम्परा को बाधित करते है?
आधुनिक जीवनशैली के पैरोकारों को यह पता नहीं है कि भारतीय संस्कृति में उत्सव का कितना व्यापक अर्थ रहा है। भारतीय संस्कृति चिंतन की दृष्टि से जितनी महान रही है, उतना ही महान लोकाचार व लोकोत्सव में रही है। लेकिन हम भूलते जा रहे हैं कि ऋतु परिवर्तन, नई फसल आदि के समय कौन-कौन से उत्सव होते थे। नागपंचमी क्यों मनायी जाती थी, बालिकाएं- महिलाएं गणगोर क्यों पूजती है, कार्तिक महीने में क्यांे कुंवारी कन्याएं स्नान कर गीत गाती हैं? करवा चैथ का व्रत क्यों रखा जाता है, गोवर्धन पूजा क्यों की जाती है, उसका संदेश क्या है? इन सबका नए सिरे से मूल्यांकन करने की जरूरत है। लेकिन क्या हम इसके प्रति गंभीर और चिंतनशील हो पायेंगे?
भारत की उत्सव परम्परा और उससे जुड़ी सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता के खिलाफ कई वर्षों से षडयंत्र रचा जा रहा है। पशु अधिकार, मानवाधिकार, पर्यावरण, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तीकरण, मजहबी सहिष्णुता एवं राष्ट्रीय एकता की रक्षा के नाम पर भारत की कालजयी उत्सव परम्परा एवं सनातन संस्कृति को धूमिल किया जा रहा है। जल्लीकट्टू के खिलाफ मिथ्या प्रचार इसी मानसिकता का परिणाम है। जल्लीकट्टू तमिलनाडु का न केवल परम्परागत खेल है, बल्कि यह दक्षिण भारत के कृषि प्रधान विरासत का महत्वपूर्ण अंग है, यह खेल से अधिक उत्सव का प्रतीक है। खेती का मुख्य आधार होने के कारण देश के करोड़ों आस्थावान हिन्दुओं सहित तमिलों के लिये बैल पूजनीय है। यह हजारों वर्ष पुराना खेल-उत्सव है, जिसमें स्पेन के बुल-फाइटिंग की तरह बेलों को जान से नहीं मारा जाता और न ही उन्हें काबू करने वाले युवक किसी हथियार का उपयोग करते हैं। ऐसे परम्परागत खेल-उत्सवों पर प्रतिबंध की मांग भारत की उत्सवप्रियता पर हमला है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने उत्सवों की परम्परा का न केवल पुनर्मूल्यांकन करें बल्कि मौजूदा पीढ़ी को उसका सही अर्थ भी समझाएं। उन्हें बताएं कि उत्सव हमारे राष्ट्र, समाज, मनुष्य और विचार के आधार हंै जो सहृदयता और सामूहिकता को परिभाषित करते हैं। वे मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का धर्म निभाते हंै। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम का भाव इसमें समाहित हुआ है। उत्सव ने हमें प्रेम और आनंद की अनुभूति से हमेशा अविभूत कराया है। जीवन का एक नाम है उत्सव। उत्सव में सत्य की तलाश शुरू होती है। जीवन का दर्शन उत्सव में ही सिमटा हुआ है जबकि उत्सवहीनता में जीवन भौंथरा, असुरक्षित, भयाक्रांत, कायर, कमजोर पड़ जाता है। सघन अंधेरों की परतों को भेदकर जब उत्सव आंगन में उतरता है तो प्रकृति का पौर-पौर प्राणवान हो उठता है, क्योंकि उत्सव की अगवानी में जागते संकल्प एवं उत्साह की ज्योत विकास की अनेक संभावनाएं दे जाती है। यही क्षण अभ्युदय का होता है। सृजनशील चेतना जागती है। सपने संकल्पों मेें ढलकर साध्य तक पहुंचने के लिये पुरुषार्थी प्रयत्नों में जुट जाते हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि भारत को अपनी उत्सव परम्परा का पुनर्गठन करना पड़ेगा, ऐसा करके वह न केवल भारतीय जन-चेतना का बल्कि समूची मानवता का सबसे बड़ा उपकार करेगी। ऐसा नहीं किया गया तो एक सभ्यता के रूप में अपना विनाश और एक देश के रूप में अपना विखंडन सुनिश्चित है।
(ललित गर्ग)
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