आज मेरी ये ग़ज़ल विशेष रूप से ईमानदार, कर्मठ, मेहनतकश और कर्मण्य जुझारू लोगों को समर्पित, जिन्होंने ज़मीर से समझौता नहीं किया और रीढ़ सदा मजबूत रखी। अंजाम की परवाह नहीं की।
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मुकद्दर से भी अपने ज़बर लड़ के आया हूँ…
ईमान की राह पर हैं मंज़िल-ओ-मुकाम दुश्वार
मैं ज़र्जर पथरीली सीढ़ियों पे चढ़ के आया हूँ..
सस्ते में हुनर बेचना जब गवारा नहीं किया
तब हिमायतियों के चहरे भी पढ़ के आया हूँ ..
घिसता रहा एड़ियां कई कूचा-ओ-दर पे मैं
ज़बीं भी कई दैर-ओ-हरम पे रगड़ के आया हूँ…
जी हुज़ूरी फितरत ना थी, कई खामियाज़े भुगते
यूँ समझो के हाथ तदबीरों का पकड़ के आया हूँ…
नाकामियों के पतझड़ थे, तो कहीं खुशियों की बहारें
खिल के आया हूँ, कभी पत्त्तों सा झड़ के आया हूँ…
मुझ पर हवस तारी नहीं ज़मीन जोरू-ओ-ज़र की
ख्वाहिशें कुर्बानी की ज़ंजीर में जकड़ के आया हूँ…
सौहबतें सफीनों के खुद्दार नाखुदाओं से कीं
और तूफ़ान बोला मैं कहीं से बिगड़ के आया हूँ….
कोई दाग़ मेरी रूह के दामन पर नहीं हैं
सर उठा के आया हूँ, बेख़ौफ़ अकड़ के आया हूँ
अमित टंडन, अजमेर।