महत्वपूर्ण प्रश्न है कि चुनाव सुधार अपेक्षा क्या है? इसकी एक बड़ी वजह लोगों का देश के राजनीतिक दलों में व्याप्त अपराध को लेकर पनपने वाला असंतोष है। जब-जब हमें चुनाव-प्रक्रिया में कुछ गलत महसूस होता है, तो हम चुनाव और इसमें सुधार की वकालत करते हैं। अभी 17वीं लोकसभा के लिए चुनाव-प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। लेकिन चुनावी शोर में राजनीतिक दल उन्हीं मुद्दों का प्रचार करते दिख रहे हैं, जो उनके मुताबिक मतदाताओं को लुभा सकें। जबकि चुनाव के समय हर प्रत्याशी एवं राजनीतिक दल का यह चिंतन रहना चाहिए कि राष्ट्र को नैतिक दिशा में कैसे आगे बढ़ाया जाए? उसकी एकता और अखण्डता को कायम रखने का वातावरण कैसे बनाया जाए? लेकिन आज इसके विपरीत स्थिति देखने को मिल रही है।
ऐसा नहीं है कि अब तक चुनाव सुधार को लेकर कोई प्रयास नहीं हुआ है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का चुनाव निष्पक्ष एवं शान्तिपूर्वक संचालित करने में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी0एन0 शेषन ने उल्लेखनीय भूमिका निभायी है और उसके बाद भी यह प्रक्रिया जारी है। अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी ने भी लोकतंत्र शुद्धि अभियान के माध्यम से चुनाव शुुद्धि के व्यापक प्रयत्न किये। इनदिनों श्री रिखबचन्द जैन के नेतृत्व में भारतीय मतदाता संगठन भी चुनाव से जुड़ी खामियों को दूर करने के लिये जागरूकता अभियान संचालित कर रहा है। इन दोनों अभियानों से सक्रिय रूप से जुड़ने का मुझे भी सौभाग्य मिला। बात केवल इन गैर-सरकारी प्रयत्नों की ही नहीं है। सरकार भी अपने ढं़ग से चुनाव शुद्धि के प्रयत्न करती रही है। मई, 1999 में तैयार गोस्वामी कमेटी रिपोर्ट इस मामले में मील का पत्थर है। दिनेश गोस्वामी की अगुवाई में इस कमेटी ने जो रिपोर्ट तैयार की, उसमें 107 सिफारिशें की गई थीं। यह तो साफ नहीं है कि इन सिफारिशों को किस हद तक लागू किया गया, लेकिन व्यापक तौर पर यही माना जाता है कि इसकी कई सिफारिशों पर गौर ही नहीं किया गया। हालांकि इससे पहले 1993 में वोहरा कमेटी भी बनाई गई थी, जिसने ‘राजनीति के अपराधीकरण’ की बात कही थी। चुनाव प्रक्रिया पर संगठित या असंगठित अपराध के असर को समझने की यह पहली कोशिश थी।
देश में चुनावी भ्रष्टाचार एवं अपराध द्रौपदी के चीर की भांति बढ़ रहा है। उसके प्रतिकार के स्वर एवं प्रक्रिया जितनी व्यापक होनी चाहिए, उसका दिखाई न देना लोकतंत्र की सुदृढ़ता को कमजोर करने का द्योतक है। बुराई और विकृति को देखकर आंख मूंदना या कानों में अंगुलियां डालना विडम्बनापूर्ण है। इसके विरोध में व्यापक अहिंसक जनचेतना जगाने की अपेक्षा है। आज चुनावी भ्रष्टाचार का रावण लोकतंत्र की सीता का अपहरण करके ले जा रहा है। सब उसे देख रहे हैं पर कोई भी जटायु आगे आकर उसका प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं है। भ्रष्टाचार के प्रति जनता एवं राजनीतिक दलों का यह मौन, यह उपेक्षाभाव उसे बढ़ाएगा नहीं तो और क्या करेगा? देश की ऐसी नाजुक स्थिति में व्यक्ति-व्यक्ति की जटायुवृत्ति को जगाया जा सके और चुनावी भ्रष्टाचार के विरोध में एक शक्तिशाली समवेत स्वर उठ सके और उस स्वर को स्थायित्व मिल सके तो लोकतंत्र की जड़ों को सिंचन मिल सकता है।
2015 में 20वें विधि आयोग ने ‘इलेक्टोरल रिफॉर्म’ (चुनाव सुधार) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट सौंपी। आयोग की इस 255वीं रिपोर्ट के पहले अध्याय में साफ-साफ कहा गया है कि चुनाव प्रणाली में सुधार लाने के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए, उसकी पूरी जानकारी इस रिपोर्ट में है। उल्लेखनीय है कि विधि आयोग की 244वीं रिपोर्ट राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने और गलत हलफनामा दाखिल करने पर उम्मीदवार को अयोग्य ठहराने की वकालत करती है।
चुनाव शुद्धि की एक बड़ी बाधा चुनाव से जुड़ा आर्थिक अपराधीकरण है। राजनीतिक चंदे के रूप में पनप रहा यह अपराध गंभीर एवं चिन्तनीय है। क्योंकि पहले तो चुनावों में खर्च करने के लिए चंदा दिया जाता है फिर चुनी जाने वाली सरकारों से उस चंदे के बदले गैर-कानूनी काम करवाये जाते हैं। राजनीतिक चंदा काले घन को उपयोग में लाने का माध्यम भी है। चुनाव की इस बड़ी विसंगति को दूर करने के लिये और चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिये भाजपा सरकार ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ की व्यवस्था की थी, लेकिन यह भी पूरी तरह से चुनाव सुधार की जरूरतें पूरी नहीं करता। अव्वल तो इसमें न तो देने वाले की और न चंदा पाने वाले की जानकारी जाहिर होती है, जिस कारण यह पारदर्शी व्यवस्था नहीं है, और फिर इसमें किसी कंपनी द्वारा एक वित्तीय वर्ष में पिछले तीन साल के अपने शुद्ध लाभ का सिर्फ 7.5 फीसदी चंदा देने की सीमा भी हटा दी गई है। इससे कोई भी शख्स शेल या अनाम कंपनी बनाकर राजनीतिक दलों को मनमाफिक चंदा दे सकता है।
चुनाव को विकृत करने में सांप्रदायिक भावना और जातीयता भी मुख्य कारण है। योग्यता का चिंतन किए बिना धर्म या जाति के आधार पर किया गया चुनाव उसकी शुद्धि के आगे प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। वर्तमान स्थिति यह है कि राजपूत राजपूत को वोट देगा, जाट जाट को वोट देगा, अहीर अहीर को वोट देगा, मुसलमान मुसलमान को तथा ब्राह्मण ब्राह्मण को वोट देगा। इससे राष्ट्र खंडों में विभक्त होकर निःशक्त हो जाता है क्योंकि जातीय लोगों के वोटों से चुनकर आया हुआ सांसद या विधायक अपनी जाति के विकास के बारे में ही ज्यादा सोचेगा।
सही मायनों में हमारी चुनाव प्रणाली कितनी ही कंटीली झाड़ियों में फँसी पड़ी है। प्रतिदिन आभास होता है कि अगर इन कांटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जाएगा। ”सारे ही दल एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। राजनीतिज्ञ पारे की तरह हैं, अगर हम उस पर अँगुली रखने की कोशिश करेंगे तो उसके नीचे कुछ नहीं मिलेगा। यही कारण है कि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं की संख्या बढ़ी है। धनबल और बाहुबल लोकतंत्र पर हावी होने लगे हैं। फिर भी, किसी पार्टी को चुनाव सुधार की प्रक्रिया जरूरी नहीं लगती। यही वजह है कि इस मुद्दे पर वोट भी नहीं मांगे जा रहे। मगर चुनाव सुधार का मसला यदि लोकतंत्र के इस महापर्व में कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाता है, तो लोकतंत्र का नया सूरज कैसे उगेगा?
(ललित गर्ग)
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