दरअसल विपक्ष आज बेबस है क्योंकि उसके हाथों से चीज़ें फिसलती जा रही हैं। जिस तेजी और सरलता से मौजूदा सरकार इस देश के सालों पुराने उलझे हुए मुद्दे जिन पर बात करना भी विवादों को आमंत्रित करता था, सुलझाती जा रही है, विपक्ष खुद को मुद्दाविहीन पा रहा है। और तो और वर्तमान सरकार की कूटनीति के चलते संसद में विपक्ष की राजनीति भी नहीं चल पा रही जिससे वो खुद को अस्तित्व विहीन भी पा रहा है शायद इसलिए अब वो अपनी राजनीति सड़कों पर ले आया है। खेद का विषय है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए अभी तक विपक्ष आम आदमी और छात्रों का सहारा लेता था लेकिन अब वो महिलाओं को मोहरा बना रहा है। जी हाँ इस देश की मुस्लिम महिलाएँ और बच्चे अब विपक्ष का नया हथियार हैं क्योंकि शाहीन बाग का मोर्चा महिलाओं के ही हाथ में है।
अगर शाहीन बाग का धरना वाकई में प्रायोजित है तो इस धरने का समर्थन करने वाला हर शख्स और हर दल सवालों के घेरे में है। संविधान बचाने के नाम पर उस कानून का हिंसक विरोध जिसे संविधान संशोधन द्वारा खुद संसद ने ही बहुमत से पारित किया हो क्या संविधान सम्मत है ? जो लड़ाई आप संसद में हार गए उसे महिलाओं और बच्चों को मोहरा बनाकर सड़क पर लाकर जीतने की कोशिश करना किस संविधान में लिखा है? लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार के काम में बाधा उत्पन्न करना लोकतंत्र की किस परिभाषा में लिखा है? संसद द्वारा बनाए गए कानून का अनुपालन हर राज्य का कर्तव्य है (अनुच्छेद 245 से 255) संविधान में उल्लिखित होने के बावजूद विभिन्न राज्यों में विपक्ष की सरकारों का इसे लागू नहीं करना या फिर केरल सरकार का इसके खिलाफ न्यायालय में ही चले जाना क्या संविधान का सम्मान है? जो लोग महीने भर तक रास्ता रोकना अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं उनका उन लोगों के संवैधानिक अधिकारों के विषय में क्या कहना है जो लोग उनके इस धरने से परेशान हो रहे हैं? अपने अधिकारों की रक्षा करने में दूसरों के अधिकारों का हनन करना किस संविधान में लिखा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उन मुस्लिम महिलाओं से जो धरने पर बैठी हैं। आज जिस कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर जैसे नेताओं का भाषण उनमें जोश भर रहा है उसी कांग्रेस की सरकार ने शाहबानो के हक में आए न्यायालय के फैसले को संसद में उलट कर शाहबानो ही नहीं हर मुस्लिम महिला के जीवन में अंधेरा कर दिया था। यह दुर्भाग्यजनक ही है कि वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण तीन तलाक से छुटकारा पाने वाले समुदाय की महिलाएँ उस विपक्ष के साथ खड़ी हैं जो एक राजनैतिक दल के नाते आज तक उन्हें केवल वोटबैंक समझ कर उनका उपयोग करता रहा और आज भी कर रहा है।
चूंकि 2016 के बाद अपने परिसर में विभिन्न देशविरोधी गतिविधियों के सार्वजनिक होने के चलते जेएनयू अब बेनकाब हो चुका है और वहाँ का छात्र आंदोलन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रभाव छोड़ने के बजाए खुद ही विवादों में आ जाता है। इसलिए विपक्ष ने अब महिलाओं को अपना मोहरा बनाया है। क्योंकि मोदी सरकार की नीतियों ने वोटबैंक की राजनीति पर जबरदस्त प्रहार किया है और जो थोड़ी बहुत मुस्लिम दलित का वोटबैंक बचा भी है तो उसमें कंपीटिशन बहुत हो गया है क्योंकि भाजपा को छोड़ लगभग समूचा विपक्ष ही उसे साधने में लगा है। इसलिए उसने विश्व इतिहास पर नज़र डाली और महिला आंदोलन की कुंजी खोजी जिसका इस्तेमाल वो सबरीमाला मंदिर के संदर्भ में भी कर चुका था। यह अब मुस्लिम महिलाओं के सोचने का विषय है कि वे किसी दल के राजनैतिक हथियार के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं जिसका केवल देश विरोध में उपयोग किया जाता है या फिर इस देश के उस जगरूक नागरिक के रूप में जो देश निर्माण में अपना योगदान देता है और जो केवल सम्मान का पात्र होता है।
डॉ नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार है)