बरसों से प्यासी मरूभूमि को जैसे सावन का संदेश आया..!!

शराब की दुकानों पर उमड़ी भीड़ ने कई भरम तोड़ डाले

अमित टंडन
अजमेर। तपते रेगिस्तान की जलती रेत पर बारिश की बूंदों-सा एहसास किया मयकशों ने आज। कोरोना दहशत के बीच लॉक डाउन के तीसरे चरण के पहले दिन सोमवार (4 मई, 2020) को जब मदिरा की दुकानें खुलीं तो यूँ कतारें थीं कि जैसे किसी धर्मिक यात्रा के दौरान कभी देव दर्शन के लिए लंबी कतार लगती है।
हालांकि मानव की सोच पर शर्मिंदगी भी महसूस हुई कि किसी के मन मे भी भगवान दर्शन की इच्छा नहीं है। लॉक डाउन के दौरान किसी ने सवाल खड़ा नही किया कि काश धर्म स्थल खुलते तो हम अपने ईष्ट देव के दर्शन व सेवा करते। मगर शराब की दुकानों पर उतावले लोगों की भीड़ जिस कदर टूट कर पड़ी, उससे ये तो साबित हो गया कि पिछले डेढ़ महीने के बंद के दौरान किसी को भी शायद अपने भगवान की कमी नहीं खली। जिस तरह दीवानावार लोग सोशल डिस्टेंसिंग के सब बंधन तोड़ कर एक एक बोतल के लिए बेताब नज़र आए, तो समझ आया कि शायद वेदों में इसे ही “कलयुग” के रूप में परिभाषित किया गया है ।
शायद डेढ़ महीने के लॉक डाउन के दैरान लोगों को यदि सबसे ज्यादा कुछ कमी खली या सबसे ज्यादा याद की गई, तो वो थी “शराब”। कम से कम दुकानों पर मची अफरा तफरी से तो यही लगा।
मगर कितने सवाल मेरे जैसे कितने ही सामाजिक विचारक लोगों के मन में कौंधे होंगे।
*इतनी बेताबी और शिद्दत कभी बच्चे की पढ़ाई के लिए लोगों में नहीं दिखी
* बूढ़ी माँ की दवाई के लिए भी नही दिखी
* अंधे बूढ़े बाप के चश्मे के लिए ऐसी फिक्र नही दिखी
* भूखे बच्चों के रुआंसे चहरे पर हंसी लाने के लिए भी नही दिखी।
* प्रकृति या मानवता के लिए तो मोहब्ब्त इंसान कब की छोड़ चुका है।

सक्षम लोगों का तो चलो समझ आया कि घर कि जरूरतों के अतिरिक्त भी वे मदिरा या अन्य शौक के लिए आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं।
मगर, शराब की दुकान पर बोतलों को प्यासी नज़रों से ताकते अधिकतर लोग तो वे थे जो लॉक डाउन के दौरान फ्री राशन किट पाने के लिए जुगाड़ में लगे होंगे। मतलब उन्हें पता है कि इस देश में रोटी तो हराम की उपलब्ध है; उस पर फिजूल पैसा खर्च क्यों करना। वैसे भी उस मुफ्त आटा दाल चावल के लिए भी हाथ फैलाने की शर्मिंदगी उस आदमी को कहां झेलनी पड़ी। अधिकतर ने तो अपनी औरतों और नाबालिग बच्चों को लाइन में लगा कर अनाज इकट्ठा करा लिया। यानी नामर्दगी की ऐसी मिसाल कि जिस पति और बाप को बीवी-बच्चों का पेट भरने के लिए पैसे कमाने चाहिए, या बचत करनी चाहिए..; वो पुरुष बीवी बच्चों द्वारा लाए गए राशन को खा कर उन्हीं पर गुर्राएगा, और खुद के कमाए पैसों से सिर्फ शराब खरीदेगा।
इन प्यासी आत्माओं को डेढ़ महीने की दुकानबन्दी ने रेगिस्तान बना दिया था, कि दुकान खुलने का स्वागत इन्होंने ऐसे किया जैसे किसान मानसून का स्वागत करता है।
क्या सच मे इन्हें डेढ़ माह की दुकानबन्दी ने रेगिस्तान कर दिया??
नहीं..! दरअसल इस प्रवृत्ति के लोग फितरतन बंजर होते हैं। ना इन्हें भावनाओं से मतलब, ना परिवार से प्यार, ना बच्चों से मोह, ना समाज की फिक्र। देश दुनिया तो इनके लिए वैसे ही आउट ऑफ कोर्स होता है। और रहेे भगवान। तो ऐसे लोगों का एक ही ईमान और भगवान होता है “इनका स्वार्थ”।
इस कोरोना ने कई रंग दिखाए, कई ढंग दिखाए, बहुत से सबक दिए। आज ये सबक भी सीख लिया कि इंसान भावनाहीन और लापरवाह हो चुका है। महामारी हो, मौतें हों, अपने ही परिवार के लिए ही ज़िन्दगी के खतरे क्यों ना हों…. मगर, जिस इंसान को सिर्फ खुद से मतलब है, तो उसे सिर्फ खुद से मतलब है।
ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे।

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