उड़ नहीं पाते ।
उड़ नहीं पाते ,
स्वाद बन जाते ।
हम निरीह प्राणी,
क्यों सताते तुम ।
मारकर हमको ,
ज़ुल्म क्यों ढाते ।
ये सुनहरे पर ,
भी मुसीबत है ।
काग होते तो ,
हम भी बच जाते ।
सिर्फ़ दो दाने ,
चाहते हैं हम ।
आस में बैठे ,
गीत हम गाते ।
एक दिन सबको,
मौत आनी है ।
काश हम अपनी,
मौत मर पाते ।
क्या कहे किससे,
सब पराए हैं ।
स्वार्थ के सारे ,
हैं अरे नाते ।
– *नटवर पारीक*, डीडवाना