– 45 दिन का लोकतंत्र बचाओ अभियान हुआ 45 मिनट में समाप्त
– रजनीश रोहिल्ला।
आखिरकार राजस्थान में लोकतंत्र बच ही गया। इस लोकतंत्र को बचाने में कई लोग दिन रात जुटे रहे। लोकतंत्र किसी एक की नहीं बल्कि सबकी मेहनत से बचा है। लोकतंत्र तो बचना ही था, सो बच गया। अच्छा हुआ कि विधानसभा से बाहर बच गया, नहीं अंदर बचता।
कई बार तो राजनेताओं के मुंह से ’’लोकतंत्र ’’ के लिए निकली बातें बेमानी सी लगती है। ऐसा लगता है कि किसी को लोकतंत्र की चिंता नहीं। लेकिन अपने लगना भी कोई लगना है। गलत साबित हो गया। आखिरकार नेताओं ने ही अपना राजनीकि कौशल दिखाते हुए लोकतंत्र को बचाया।
कभी-कभी लगता था कि अन्ना हजारे की कही हुई एक बात सारे नेताओं की बातों पर भारी है। अन्ना हजारे कहते हैं कि ’’सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता’’ ही राजनीति का उददेश्य हो गया है। लेकिन यह भी गलत ही साबित हो गया। भले ही विधायकों की खरीद फरोख्त मामले में मुकदमें दर्ज हुए, भले ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने होर्स टेडिंग की रेट 15 से 35 करोड़ बताई हो लेकिन अब लोकतंत्र के बचने के बाद यह सारी बात गौण हो जाती है।
राजस्थान में सियासत के नाम पर जो खेल चला, या दूसरे शब्दों में नंगा नाच चला। वो बात भी गलत ही साबित हुई।
असल में वो तो लोकतंत्र को बचाने के लिए ईमानदार प्रयास था। जरा सोचिए। किसके लिए चला? इसका जवाब है, सिर्फ और सिर्फ भोली, नासमझ और कमजोर जनता के हितों की रक्षा के लिए।
लोकतंत्र बचाने के इस महा समर में पांच खेमे साफ-साफ नजर आए। खास बात यह है कि यह सारे खेमे बिना किसी स्वार्थ के लिए लोकतंत्र की रक्षा करने में दिन रात लगे रहे।
लोकतंत्र को बचाने के इन नेताओं के प्रयासों की तुलना आपदा के समय सेना के द्वारा किए जाने वाले कार्यों से नहीं की जानी चाहिए। यह कहना भी सही नहीं होगा कि इन नेताओं में सेवा का वैसा संकल्प कहीं नजर नहीं आता, जैसा बर्फ में बंदूक लिए कई दिनों तक देश की सीमा पर खड़ें सैनिक के संकल्प और जज्बे में होता है।
लोकतंत्र की रक्षा के लिए इन नेताओं ने क्या-क्या नहीं किया। जब-जब भी लोकतंत्र खतरे में आता है तो नजारा ही कुछ और होता है।
लोकतंत्र को बचाने की स्क्रिप्ट में फाइव स्टार होटल, गीत-गजल, चार्टर प्लेन और सांठ-गांठ, जनता की चुनी सरकार को गिराने की योजना। योजना को पूरा करने के लिए धन-बल का इस्तेमाल और ना जाने क्या-क्या होता है। लेकिन राजस्थान में बचाए गए लोकतंत्र में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। क्योंकि सबने अपने-अपने फाइव स्टार होटलों में रहने के बिल भरे हैं।
लोकतंत्र को बचाने और संविधान की मर्यादाओं की पूरी पालना में राज्यपाल और स्पीकर भी नजर आए। सरकार भी दिन रात कभी होटल से, तो कभी सीएमआर तो कभी सचिवालय से लोकतंत्र को मजबूत बनाने और बचाने में दिन रात दिन जुटी रही।
लोकतंत्र को मजबूत करने का पहला जिम्मा सचिन पायलट ने अपने कंधों पर उठाया। अभिव्यक्ति की अजादी के नाम पर 18 कांग्रेस विधायकों के साथ मानेसर जाकर बैठ गए। गए तो ऐसे गए कि जब तक लोकतंत्र बच नहीं गया, तब तक नजर ही नहीं आए।
इस लोकतंत्र को बचाने के लिए पायलट ने उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद को भी दाव पर लगा दिया।
आज लोकतंत्र नहीं बचता तो दो दिन बाद पायलट और उसके खेमे के 18 विधायकों की विधायकी भी जा सकती थी और 6 साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य भी घोषित हो सकते थे। लेेकिन शुक्र है भगवान का ऐसा होने से पहले लोकतंत्र बच गया।
लोकतंत्र को बचाने का दूसरा जिम्मा, भाजपा ने उठाया। भाजपा पिछले कुछ समय में कई राज्यों में लोकतंत्र को बचा कर दिखा चुकी है। पायलट खेमे की गणित पूरी होती तो लोकतंत्र बचाओ अभियान की फिल्म ही कुछ और होती।
लेकिन इस बार भाजपा को पूरा मौका नहीं मिला। काश पायलट के पास अपने ही स्तर पर लोकतंत्र को बचाने की पूरी गणित होती तो गांधी परिवार के निवास स्थान पर नहीं पहुंचना पड़ता। ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह लोकतंत्र को बहुत दिन पहले ही बचा चुके होते।
लोकतंत्र को मजबूत करने का तीसरा साहसिक कदम मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उठाया। गहलोत की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने लोकतंत्र को बचाने के लिए 30 दिनों तक 100 विधायकों को होटल में बंद रखा। देखा जाए तो अगर लोकतंत्र बचाने के इस दौड़ में प्रथम स्थान प्राप्त करने की कोई शील्ड होती तो, उसके असली हकदार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ही हैं।
लोकतंत्र को बचाने के लिए वसुंधरा राजे की भूूमिका को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। एक महीने से चुप्पी साधे बैठी वसुंधरा राजे के दिल्ली पहुंचते ही अचानक लोकतंत्र बचने की स्थितियां बनने लग गई। वसुंधरा राजे ने अपने तरीके से लोकतंत्र को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भाजपा के सतीश पूनिया, राजेंद्र राठौड़ और गुलाब चंद कटारिया ने भी अपने हिसाब से लोकतंत्र बचाने के लिए अर्जेंट चार्टर प्लेन से भाजपा के कुछ विधायकों को गुजरात भिजवाया। इन नेताओं की नजर में गुजरात से बेहतर कोई जगह नहीं थी, जहां से लोकतंत्र को बचाया जा सकता था।
लोकतंत्र को बचाने की इस मुहिम में कांग्रेस की मां, बेटी और भाई की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। उन्हें भले ही लोकतंत्र बचाने का तरीका पता करने में एक महीना लग गया हो लेकिन कोई बात नहीं, देर आए दुरूस्त आए। तीनों ने मिलकर गहलोत और पायलट के लिए लोकतंत्र को बचाने की रूपरेखा तैयार कर दी।
एक महीने तक कई खेमों द्वारा लोकतंत्र को बचाने के लिए चले अभियान के बाद आखिरकार लोकतंत्र बच गया। हालांकि जानकार कह रहे हैं, कि इतने लोगों के प्रयास के बाद भी लोकतंत्र पर संकट के बादल पूरी तरह छंठे नहीं है।
लोकतंत्र को मजबूत करने और जनता के हितों के लिए इन सभी ने जो प्रयास पिछले एक महीने में किए हैं, ऐसे सराहनीय प्रयास आगे भी हमारे सामने आते रहेंगे। ऐसा हो तो, कभी कोई आश्चर्य ना करना। आज लोकतंत्र कितना खुश है, कितना सुकून महसूस कर रहा है, कितनी आजादी में सांस ले रहा है। क्योंकि, सबने मिलकर लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई है। दोस्तों।