प्रेम को समझना है तो राधा-कृष्ण ओर कृष्ण-गोपियों का दृष्टांत पूरी दुनिया में अद्वितीय है। कृष्ण के प्रेम में आत्म विभोर गोपियां। बेखुद गोपियां। बेसुध गोपियां। कैसा था वह प्रेम जो माखन चुराने से आरम्भ हुआ, चीर हरण में परिभाषित हुआ, रास में रसमय हुआ और महारास में सम्पूर्ण हुआ। कैसा था वह कृष्ण-प्रेम ! माँ-बेटी, सास-बहू, जेठानी-देवरानी ; सब की सब उधर ही भाग रही हैं। तवें की रोटी छोड़ कर , थाली का भोजन छोड़ कर, दूध पीते हुए शिशु को छोड़ कर ; सारी गोपियां कृष्ण की तरफ भाग रही हैं। सब अपनी अपनी पहचान छोड़ कर एक ही दिशाा में भाग रही हैं। आधी रात गये तक कृष्ण के साथ नाच रही हैं। कितना निर्भय था वह प्रेम ! देह से ऊपर। संदेह से परे। सौ फीसदी खरा प्रेम।
प्रेम में गोपियों की अनूठी दीवानगी। खुद कृष्ण हो जाने की रूहानगी। सब की सब में कृष्ण ही रह जाने का उन्माद। बाकी सब विसमृत ; केवल कृष्ण याद। प्रेम की धारणा ब्रज भूमि में जीवन्त हो गई। रास में बे-सुध गोपियांें का देह बोध विसर्जित हो गया। केवल जीवात्माएं रह गईं। सौंदर्य, श्रंगार, नृत्य, ताल और वंशी-नाद ! अद्भुत रास ! ब्रह्म-जीव का रास ! प्रकृति-पुरुष का रास ! पूरी ब्रज भूमि ही रास मय हो गई। ब्रजमण्डल ही प्रेम का वेद हो गया। कैसा उदात्त था वह प्रेम जो आज पांच हजार साल बाद भी सजीव है। कृष्ण सजीव हैं। बांसुरी सजीव है। राध-गोपियां सजीव हैं। ब्रजभूमि सजीव है। पांच हजार वर्ष लम्बा रास, उल्लास ! पांच हजार साल लम्का उत्सव ! सम्पूर्ण प्रेमयोग जो आज भी हम सब में धड़कता है।
कैसा था वह प्रेम जो भागवत पुराण हो गया ; जो सूर का भ्रमरगीत हो गया ; जो जयदेव का गीत गोविंद गाने लगा ; जो मीरा हो गया ; जो सम्पूर्ण भारत का कृष्ण भक्ति काव्य हो गया। कैसा था वह प्रेम जो कृष्ण मंदिरों में बेजोड़ स्थापत्य हो गया; चित्रकला में रंगोपासना हो गया ; और संगीत में वंशी वादन हो गया। यही अलौकिक प्रेम पूरी दुनिया में एसकाॅन टेम्पल्स हो गया।