*हम चौड़े, गलियारे सकरे*

-बाजार फैल गए, खरीददारी सिमट गई
-सगे संबंधी, नाते-रिश्तेदार बौने हो गए, लगाव सिकुड़ गया
-अब ना कोई लावण्या देता है, ना लेता है

✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉सनातनियों के सबसे बड़े पर्व दीपावली पर बधाई और शुभकामनाओं के संदेश खूब मिले, अनगिनत मिले। सोशल मीडिया के प्लेटफार्म फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम बधाई और शुभकामना के संदेशों से अटे हुए हैं। वाट्सएप पर भी ग्रुपों में भरमार रही। वाट्सएप पर व्यक्तिगत रूप से भी संदेश मिले, तो कइयों ने फोन कर शुभकामनाएं देने की रस्म अदायगी की। लेकिन एक-दूसरे के घरों पर बधाई और शुभकामनाएं देने के लिए बहुत कम यानी गिनती के लोग पहुंचे होंगे। दीपावली पर्व शुरू होने के साथ ही धनतेरस के एक दिन पहले से ही संदेशों के आदान-प्रदान का सिलसिला शुरू हो गया था, जो अभी तक चल रहा है और कल गुरुवार को भाईदूज तक चलेगा। वैसे तो इस भौतिकवादी युग में सब-कुछ फॉर्मेलिटी जैसा हो गया है। हम भले ही धन-माया के हिसाब से कुछ भी नहीं हों, लेकिन ऐंठ, गुरूर, घमंड, अकड़, ठसका इतना ज्यादा हो गया कि इन सबके आगे रिश्ते बहुत बौने हो गए हैं। हम चौड़े हो गए हैं और रिश्तों के गलियारे सिकुड़ गए हैं। रिश्ते के जिन गलियारों से हम अपने सगे-संबंधियों, भाई-बंधुओं, नाते-रिश्तेदारों, परिचितों-मित्रों के दिलों तक पहुंचते थे, वह अब बंद-से हो गए हैं। पहले भले ही लोगों के पास साधन-संसाधन नहीं थे, फिर भी रिश्ते-संबंध दिलों की गहराइयों तक थे। दिलों में एक-दूसरे के प्रति चाहत होती थी। हर तीज-त्यौहार, पर्व पर एक-दूसरे के यहां राम-राम करने जाते थे, अपने से बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते थे, छोटों को प्यार से दुलारते थे। जब किसी के यहां जाना होता था, तो वहां देने के लिए साथ में लावण्या भी बांध लेते थे। लौटते वक्त वे लोग भी लावण्या बांध देते थे। इसी तरह दूसरे लोग भी हमारे यहां आते थे। राम-राम के बहाने एक-दूसरे के परिवार के दुख-सुख जान लेते थे।

प्रेम आनंदकर
मन को काफी सुकून मिलता था। दीपावली पर जब खरीददारी करने के लिए बाजार जाते थे, तो कोई-ना-कोई जान-पहचान वाले या सगे-संबंधी मिल जाते थे। राम-राम, दुआ-सलाम कर लेते थे। अब भी बाजार तो पहले की तरह सजते हैं, लेकिन खरीददारी कम हो गई है। छोटी-छोटी दुकानों की बजाय शोरूम या शॉपिंग मॉल में जाते हैं, ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं। दीपावली पर एक या दो दिन पहले बाजारों में रौनक तो होती है, लेकिन पूजा सामग्री, मिठाई, पटाखे ही खरीदते हैं। दीपावली पूजन के दूसरे दिन गोवर्धन को पहले मेहमानों का दिनभर आने-जाने का सिलसिला चलता रहता था। अब हम अपने घर में तरह-तरह की मिठाई, नमकीन, फल-फ्रूट्स और सूखे मेवों की प्लेटें या ट्रे सजाए बैठे आने वालों का इंतजार करते रहते हैं, किंतु कोई नहीं आते हैं। पांच दिवसीय दीपावली पर्व के आखिरी दिन भाईदूज भी इस मतलबी युग में महज फॉर्मेलिटी हो गया है। जिन घरों में आज भी भाई-बहन के रिश्ते अच्छे हैं, वे घर सौभाग्यशाली हैं। लेकिन कुछ घरों में भाई-बहन के बीच मनमुटाव, ईर्ष्या, घृणा, नफरत की दीवार खड़ी हो गई है। कुछ घर तो ऐसे भी हैं, जहां भाई-बहन भले ही साथ रह रहे हों, फिर भी तथाकथित स्वाभिमान के वशीभूत होकर ना बहन अपने भाई की कलाई पर कलावा बांधती है और ना ही भाई अपनी बहन से कलावा बंधवाना चाहता है। जब मां जाया भाई-बहन के बीच ऐसी वैमनस्यता दिखाई देती है, तो मन में यह सवाल उठता है कि फिर रिश्तों का क्या महत्व और वजूद रह जाएगा। भाई-बहन ही नहीं, भाई-भाई भी त्यौहार-पर्व पर ना तो एक-दूसरे से मिलते हैं और ना ही लावण्या लेते-देते हैं। सब-कुछ इस मोबाइल और मतलबी युग में तथाकथित स्वाभिमान ने छीन लिया है। रिश्तों का लगाव और मर्म खत्म-सा होता जा रहा है। हम जो कर रहे हैं, वही हमारी आने वाली पीढ़ी करेगी। तो आइए, इस बार ना सही, अगली बार जो भी त्यौहार-पर्व आए तो हम रिश्तों पर जमी लड़ाई, घृणा, कुंठा, मान-अपमान, नफरत, घमंड, गुरूर और तिरस्कार की धूल झाड़ कर फिर से रिश्तों में मिठास घोलें। दिल की गहराइयों से रिश्ते निभाएं। हम जिंदा हैं तो खटपट भी होगी ही। किंतु रिश्तों पर गर्त नहीं जमने दें।

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