औरत की आज़ादी

अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस पर विशेष
” *आनन्दकर* ” औरत से घर संसार है ।
दामन में इनके प्यार और सिर्फ प्यार है ॥

लब्जों के कारीगरों ने
औरत को गीत ग़ज़ल कहा ।
कभी जमजम का पानी
कभी गंगाजल कहा ॥

रस्मों रिवाजों में कैद है
औरत की आज़ादी ।
कभी लुटी – कभी घुटी
बाबुल की ये शहजादी ॥

इन्दिरा हो या रजिया
मेहनत ने तराशा है ।
हक़ देने में आज भी
कल की तरह निराशा है ॥

कभी रूप ,कभी धर्म दौलत ने
उलझाकर रखा है औरत को ।
ताज महल खड़े किये है बेशक
दफ़ना दिया उसकी ग़ैरत को ॥

ज़ुल्म है बेटा मांगने की दुआ
लगाये जिसने पैदाइश पर कलंक ।
वहशी है वो औलाद जिसने
औरत को आबरू से किया रंक ॥

मर्द का गुरुर है औरत
लिखेगी ये नई तहरीर ।
बसायेगी नई दुनियां
समझों इसे अपनी हीर ॥

औरत की परीक्षा नहीं
रक्षा में है मर्दानगी ।
दो जिस्म ये एक जान
समझों तो है अर्धांगिनी ॥

✍️ राकेश आनन्दकर

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