सुभाषित वचनों को सुनकर धर्म में स्थिर बने: गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि*

संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने मंगलमय प्रभु महावीर की जीवन गाथा का वर्णन करते हुए फरमाया की नयसार का जीव 18 वें भव में त्रिपुष्ठ वासुदेव बने। जिन्होंने अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव को परास्त किया।सत्ता को प्राप्त करने के बाद उनकी क्रूरता इस प्रकार से बढ़ जाती है कि शय्यापालक की छोटी सी गलती पर वे उसके कान में गर्म गर्म शीशा डलवा देते हैं। वह बेचारा तड़प तड़प के अपने प्राण दे देता है। मगर त्रिपुष्ट वासुदेव गहरे निकाचीत कर्मों का बंध कर लेते हैं। जिसका परिणाम एक न एक दिन व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है। व्यक्ति हंसते-हंसते कर्मों को बांध तो लेता है मगर रो-रोकर उसे कर्म का परिणाम चुकाना पड़ता है। कर्मों को बांधना जितना आसान बताया है उनके परिणामों को भोगना उतना ही कठिन कहा गया है। इसलिए साधक को निरंतर कर्मबंध से सावधान रहने की प्रेरणा दी जाती है।आप किसी गिरते हुए को थाम सको,उसकी मदद कर सको तो अच्छी बात मगर क्रूरता और द्वेष के कारण किसी के भी साथ गलत व्यवहार करने का प्रयास मत करना।
गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने बताया कि उतराध्यन सूत्र के 21 वे अध्ययन का नाम समुद्रपालिय है। इस अध्ययन में समुद्र के अंदर जहाज में जन्म लेने वाले समुद्र पाल का वर्णन होने से इस अध्ययन का यह नाम रखा गया है। इनके पिता पालित श्रावक थे, और निर्ग्रंथ प्रवचन में कुशल थे।समुद्र पाल ने झरोखों में से एक बार वध स्थान की ओर ले जाते हुए चोर को देखकर अशुभ व शुभ कर्मों के परिणाम का चिंतन चला और इस असार संसार से वैराग्य भाव जागृत हो गया।संयम को स्वीकार करके समुद्र पाल अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं।इस अध्ययन में साधु को मोह और क्लेश से दूर रहने की प्रेरणा प्रदान की गई। पांच महाव्रतों का साधु पहले स्वयं पालन करें उसके बाद उपदेश करने का प्रयास करें।साधु कर्कश व कठोर भाषा नहीं बोले और सम्मान सत्कार की चाहना नहीं रखें। संग्राम में गए हाथी के समान कष्टों और परिषहो का डटकर मुकाबला करें।
22 वे रथनेमी अध्ययन में भगवान अरिष्ठनेमि का जीवो पर दया की खातिर बारात से रथ को मोड़कर संयम जीवन के स्वीकार का बड़ा प्यार प्रसंग है। इसी के साथ राजमती का भगवान अरिष्ठनेमि के अनुसार ही संयम पद को स्वीकार करना और संयम से विचलित होते हुए अरिष्ठनेमि को स्थिर करने के लिए राजमती द्वारा कहे गए सुभाषित वचनों का वर्णन आता है।जिन वचनों से आत्मा का कल्याण होता है, उन्हें सुभाषित वचन कहते हैं।राजमती कहती है कि अगर मेरे सामने साक्षात वैश्रमण,नल,कुबेर आदि भी आ जाए तो भी मैं अपने संयम से विचलित नहीं बनूंगी। अंगधन कुल का सर्प, धुवा निकलती हुई अग्नि में जलकर मर जाना पसंद कर लेता है, मगर वमन किए हुए विष को पीने की इच्छा नहीं रखता है।उसी प्रकार उच्च कुलीन होते हुए भी तुम वमन किए हुए संसार में जाने की इच्छा करते हो, इससे तो संयम अवस्था में मृत्यु को प्राप्त कर जाना ही श्रेयशकर है। इन सुभाषित वचनों को सुनकर वह पुरुषों में श्रेष्ठ रथनेमी संयम में स्थिर बन जाता है, और संयम पर्याय का विशुद्ध पालन कर अपने चरम लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
हम भी महावीर कथा व उत्तराध्यन सूत्र के पावन प्रसंग को सुनकर अपने आप को कल्याण के मार्ग में लगाने का प्रयास करें। अगर ऐसा प्रयास व पुरुषार्थ रहा तो यत्र, तत्र,सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन
*मनीष पाटनी,अजमेर*

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