सुरेश टाक के भाजपा में लौटने से कितना लाभ?
किशनगढ के पूर्व विधायक सुरेष टाक तकरीबन छह साल बाद भाजपा में लौट गए है। समझा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव को देखते हुए उनको भाजपा में लाया गया है। सवाल उठता है कि क्या वाकई इससे भाजपा को लाभ होगा। इसमे कोई दो राय नहीं कि उनके समर्थक अधिसंख्य मतदाता भाजपा मानसिकता के हैं। विधानसभा चुनाव में वे जब खुद चुनाव में खडे होते हैं तो जाट गैर जाट फैक्टर के कारण वे टाक को मिलते है। ऐसा दो बार हो चुका है। अब सवाल ये है कि यदि लोकसभा चुनाव में वे भाजपा से बाहर होते तो उनके समर्थक भाजपाई भाजपा को वोट नहीं डालते? क्या टाक के कहने से भाजपाई मतदाता अपना वोट खराब कर देते, क्या किसी और दल या निर्दलीय उम्मीदवार को दे देते? सीधी सी बात है कि वे भाजपा की झोली में ही गिरते। हां, अगर दोनों दल जाट को ही उम्मीदवार बनाते हैं तो गैर जाट को मुद्दा बना कर वे निर्दलीय खडे हो सकते थे। तब दोनों दलों के वोटों को आकर्षित कर सकते थे, मगर ज्यादा प्रतिशत भाजपाइयों का होता, चूंकि वे भाजपाइयों से ही अधिक संपर्क में है। संभवतः इसी को ख्याल में रखते हुए भाजपा ने उनकी वापसी करवाई है। भाजपा को कितना लाभ होगा, ये तो पता नहीं, मगर इतना जरूर है कि टाक ने अपने राजनीतिक भविष्य को संवारने का रास्ता चुन लिया है, जिसे समझदारी की संज्ञा दी जानी चाहिए। कांग्रेस उन्हें फिलवक्त कुछ दे नहीं सकती थी, जबकि भाजपा सत्ता में होने के कारण उनका सम्मान बढाने की स्थिति में है।
पलाडा दंपति का भाजपा में लौटना अपेक्षित था
अजमेर जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाडा और उनके पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाडा का भाजपा में लौटना कोई आश्चर्यजनक खबर नहीं है। ऐसा अपेक्षित ही था। यह भाजपा व स्वयं उनके हित में था। एक तो मूल रूप से वे भाजपा मानसिकता के हैं। कांग्रेस के साथ मिल कर जिला प्रमुख का चुनाव जीता, मगर कांग्रेस में शामिल नहीं हुए। यह उनका समझदारी वाला कदम था। वे जानते थे कि अंततः भाजपा में ही लौटना है। भाजपा भी जानती कि अगर उन्हें पार्टी में नहीं लाया गया तो लोकसभा चुनाव में नुकसान पहुंचा सकते थे। दो बार जिला प्रमुख व एक बार विधायक रहने के कारण पलाडा दंपति का अच्छा खासा प्रभाव है। इसके अतिरिक्त समाजसेवा के कारण हजारों लाभार्थी उनके मुरीद हैं। इसके अतिरिक्त विशेष रूप से राजपूत समाज में उनकी बहुत प्रतिष्ठा है। ज्ञातव्य है कि राजपूतों को भाजपा के नजदीक माना जाता है। अगर भाजपा से बाहर रहते तो समाज का एक हिस्से का उपयोग वे भाजपा के खिलाफ करने की स्थिति में थे।
सत्ता व संगठन में तालमेल का अभाव?
ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य की मौजूदा सरकार व भाजपा संगठन में तालमेल का अभाव है। ऐसे तीन उदाहरण सामने आए है। आपको पता होगा कि चंद पहले ही गुर्जर नेता ओम प्रकाश भडाणा को प्रदेश भाजपा में महामंत्री बनाया गया। फिर दो दिन पहले उन्हें देवनारायण बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया गया। स्वाभाविक रूप से दोनों कदम गुर्जर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए उठाए गए हैं। सवाल ये है कि एक ही व्यक्ति को दो महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां कैसे दे दी गईं? क्या वे दोनों पदों के साथ न्याय कर पाएंगे? क्या सत्ता व संगठन में तालमेल का अभाव है कि वे अपने अपने स्तर पर नियुक्तियां करते वक्त यह ख्याल नहीं रखते कि अन्यत्र कहीं नियुक्ति तो नहीं की जा रही। इसी प्रकार ज्योति मिर्धा को पहले तो प्रदेश भाजपा में उपाध्यक्ष बना दिया गया, फिर कुछ दिन बाद नागौर से टिकट दे दिया गया। जाहिर है कि संगठनात्मक नियुक्ति करने वालों को यह पता ही नहीं था कि ज्योति मिर्धा को टिकट दिया जाना है। इसी प्रकार सी आर चौधरी को प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया, फिर किसान बोर्ड का भी अध्यक्ष बना दिया गया। साफ है कि नियुतियों के मामले में सत्ता व संगठन के बीच तालमेल का अभाव है।