काको आडवाणी, मामो मोटवाणी

काको आडवाणी, मामो मोटवाणी। क्या यह जुमला आपने सुना है? नई पीढी को तो नहीं, मगर पुरानी पीढी के राजनीति के जानकारों को ख्याल में होगा कि यह नारा अजमेर में तब उछाला गया था, जब कांग्रेस ने सन् 1996 के लोकसभा चुनाव में एक लाख सिंधी मतदाताओं के मद्देनजर स्वर्गीय श्री किशन मोटवाणी को भाजपा के स्वर्गीय प्रो रासासिंह रावत के सामने मैदान में उतारा था। कांग्रेस हाईकमान का ख्याल था कि उन्हें कांग्रेस विचारधारा के अनुसूचित जाति व मुस्लिमों के वोट तो मिलेंगे ही, भाजपा मानसिकता के सिंधी वोट भी जातिवाद के नाम पर मिलेंगे। मगर यह प्रयोग विफल हो गया। मोटवानी 38 हजार 132 वोटों से पराजित हो गए। असल में भाजपा व आरएसएस को आशंका थी कि कांग्रेस के सिंधी प्रत्याशी के नाते सिंधी मतदाता उस ओर न झुक जाएं, इसलिए कि काको आडवाणी, मामो मोटवाणी का नारा घर-घर पहुंचा दिया था। पारिवारिक लिहाज से काका मामा से अधिक करीब होता है। यानि सिंधियों के वोट आडवाणी के नाम पर हासिल किए गए। आरएसएस का दाव सफल हो गया। बेशक, कुछ सिंधियों के वोट मोटवाणी को मिले थे, मगर बताते हैं कि उनका प्रतिशत मात्र 15 के आंकडे तक ठहर गया। वो भी इसलिए कि वे सिंधी समाज में काफी सक्रिय थे। साथ ही जाने-माने वकील थे। उन दिनों कुछ सिंधी परिवार परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ जुडे हुए थे। मोटवाणी के बाद कांग्रेस में सिंधी लीडरशिप ठीक से डवलप नहीं हो पाई, नतीजतन कांग्रेस विधारधारा के दूसरी श्रेणी के सिंधी नेताओं की औलादें शनैः शनैः भाजपा से जुड चुकी हैं। बहरहाल, मोटवाणी के चुनाव से यह स्थापित हो गया कि सिंधी मतदाता भाजपा से गहरे जुडे हुए हैं। उन्हें कांग्रेस का सिंधी प्रत्याशी आकर्षित नहीं कर सकता। इसी अवधारणा के चलते कांग्रेस हाईकमान ने अजमेर उत्तर में पिछले चार चुनावों से गैर सिंधी का प्रयोग किया है। हालांकि इसका परिणाम यह है कि इसी के चलते सिंधी मतदाता पूरी तरह से लामबंद हो कर भाजपा के सिंधी प्रत्याशी वासुदेव देवनानी से जुड जाते हैं। जो थोडे बहुत कांग्रेस विचारधारा के हैं, वे भी सिंधीवाद के चलते भाजपा की झोली में गिर जाते हैं। कांग्रेस के प्रति नाराजगी के कारण उनका मतदान प्रतिशत भी बढ जाता है। केवल इसी वजह से कांग्रेस को अजमेर दक्षिण में भी हार का सामना करना पड रहा है।

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