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गुरु यानि ज्ञान की चेतना। कृपा अर्थात अनुग्रह। इस तरह गुरु तथा शिष्य के अज्ञान को मिटा देने की कृपा। मुरीद के हृदय में ज्ञान चेतना का उदय कर देने की कृपा। तो गुरु जब हमें अपने ही आत्मा का बोध करा देता है, तब उसे गुरु कृपा कहते हैं। हमें अंतस्थ ईश्वर के दर्शन करा देता है तब उसे गुरु कृपा कहा जाता है। हमारे संचित बुरे संस्कारों को भस्म कर देता है; यह गुरु कृपा है।
हमारे पास किताबी ज्ञान है कि मैं देह नहीं आत्मा हूं। लेकिन यह कोरा शब्द है; अनुभूति नहीं। अनुभूति निःशब्द होती है। अनुभूति स्वयं हमारे अंदर ही होती है। गुरु की अनुभूति हमारे काम नहीं आएगी। वह हमारा कल्याण नहीं करेगी। गुरु हमें वैसी अनुभूति कराता है; यही कृपा है। इसके लिए जरूरी साधना करा देगा। शक्तिपात कर देगा। सूक्ष्म शरीर से तुम्हारे पास आएगा और ब्रह्ममुहूर्त में उठाकर साधना का अभ्यास करा देगा। यह कृपा है।
इस तरह की गुरु कृपा इसी तरह से संभव है। भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग और नाम योग या सहज योग। शंकराचार्य ज्ञान योग के दृष्टांत हैं, स्वामी विवेकानंद कर्म योग के, मीराबाई भक्ति योग की और चैतन्य महाप्रभु नाम योग के दृष्टांत हैं। गुरु अपने शिष्य के पूर्व संस्कारों के अनुसार, उसके स्वभाव के अनुसार और उसकी योग्यता के अनुकूल साधना की राह पर चला देता है। साधना तो स्वयं साधक को ही करनी पड़ती है। अनुभूति भी उसे ही होती है। अनुभूति के बाद ही वह बोधावस्था में स्थिर होता है। तब वह मन की चंचलता, बुद्धि की अस्थिरता, अहंकार के भोग से मुक्त होता है। गुरु की मदद से ऐसी अवस्था में पहुंच जाना ही गुरु कृपा है।
किंतु हम संसारी लोग हैं, हममें लोभ-मोह है, सुख की लालसा है, पद, मान, प्रतिष्ठा की भूख है। इसलिए गुरु कृपा के प्रसंग में हम चूक करते रहते हैं। वह उस पार उतारना चाहते हैं; हम इसी पार रहने के लिए आलीशान मकान मांग लेते हैं। वह रूहानी स्तर पर ले जाना चाहते हैं; हम उनसे अपने व्यापार का स्तर बढ़वा लेते हैं। वह हमें मुक्ति का सूत्र देना चाहते हैं; हम औलाद मांग लेते हैं, संतान की शादी का कर्म मांग लेते हैं।
संत-महात्मा इस धरती पर मनुष्य को तारने के लिए आते हैं; किंतु हम डूबने के शौकीन हैं। हमें सोने-चांदी की डोरी वाले बंधन में पड़े रहना अच्छा लगता है। गुरु भी क्या करें! हम अपने-अपने संस्कारों से लाचार, हम भी क्या करें!
जय श्री राम!