ध्यान सुमिरन

ध्यान यानि स्वतं अपना ध्यान भी ना रहे, ऐसी अवस्था में पहुंच जाना। सुमिरन अर्थात भगवान का स्मरण करना, याद करना, उनका गुणगान करना, उनके नाम का जप करना।
शिव शर्मा

यह दो अवस्थाएं हैं – ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते हुए नाम का जाप करना, भगवान का गुणगान करना। किसी देवी-देवता के ध्यान में डूब कर उससे संबंधित मंत्र का जाप करना। दूसरी अवस्था है – नाम का जाप करते-करते परमात्मा के ध्यान में डूब जाना। मंत्र का या दीक्षा-नाम का जप करते हुए संबंधित दिव्य ज्योति में लीन होना। इन दोनों को ध्यान में सुमिरन या सुमिरन में ध्यान कहते हैं। लेकिन कोरा ध्यान बिलकुल अलग प्रक्रिया है। यह ध्यान योग है। इसमें मंत्र का जाप नहीं होता। सांस पर या ललाट वाले ज्योति बिंदु पर अथवा किसी विचार पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। फिर उसमें ही डूब जाते हैं। ध्यान लग जाने पर आप तो हैं ही नहीं। कोई सुध-बुध नहीं। उधर जाप में तो आप हैं। आपको होश है कि नाम या मंत्र का उच्चारण हो रहा है। आपको ध्यान है कि माला फेरी जा रही है। लेकिन ध्यान में तो आपको स्वयं का ध्यान भी नहीं रहता।

जप तो आपको ध्यान तक ले जाने का माध्यम है और ध्यान स्वयं को उस परम सत्ता में खो देने की अवस्था है। हमारे ऋषियों ने ध्यान किया। ब्रह्म का ध्यान किया। परम सत्ता का ध्यान किया। दिव्य शक्तियों का ध्यान किया। फिर ध्यानावस्था में ही बोध हुआ कि ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। ध्यान में ही बोध हुआ कि शिवोहम्। ध्यान में ही अनुभूति हुई कि अयात्मा ब्रह्म् (यह आत्मा ही ब्रह्म् है)। उस वक्त ऋषि का भौतिक वजूद तिरोहित था।
सुमिरन के लिए गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि तुम मेरा ध्यान करो और ‘ओम् तत्सत्’ का जाप करो। मतलब कि कृष्ण के ध्यान में लीन रहते हुए उक्त मंत्र का जाप करो। उधर चैतन्य महाप्रभु ने हरि नाम का कीर्तन किया। कीर्तन करते-करते उसी भाव में डूब गए; श्रीकृष्ण में डूब गए। कृष्ण की दिव्य चेतना में डूब गए। तब दिव्य वाणी सुनी – वृंदावन का उद्धार करो, जीर्णोद्धार करो। उनके लिए कृष्ण के ध्यान में कृष्ण नाम का सुमिरन हो गया। उन महाप्रभु के लिए कृष्ण नाम के सुमिरन में ही कृष्ण का ध्यान हो गया। उनका कीर्तन था – हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम-राम हरे हरे। यही ध्यान सुमिरन का दृष्टांत है।
हमारे ऋषि सिखाते हैं कि जिस देवी-देवता का मंत्र है उसका ध्यान आज्ञा चक्र पर करो और उसी के मंत्र का कंठ में जाप करो। परिणामस्वरुप वह शक्ति तुम्हारे मानस में साकार हो जाएगी। मंत्र की ऊर्जा सक्रिय हो जाएगी। ऊर्जा रूप में निराकार इन ज्योति पुंजो का जो भी दिव्य आकार होता है, उसे ऋषि ध्यानावस्था में प्रत्यक्ष देखता है। फिर स्मृति के आधार पर चित्र बनवाता है। वही स्वरूप आज प्रचलित है। मंत्र जाप के द्वारा ध्यान में पहुंचने पर आपको भी वही दर्शन होंगे।
तो साधकों के लिए तीन सूत्र हैं – 1. मंत्र के देवता या देवी का ध्यान आज्ञा चक्र पर और मंत्र का जाप कंठ से (मानस जाप) करना चाहिए 2. नाम का सुमिरन करते-करते उस नामधारी के ध्यान में डूब जाओ या मंत्र के अर्थ में लीन हो जाओ 3. ध्यान योग के लिए सांस या अन्य बिंदु पर टिक जाओ। जब खुद का ही ध्यान नहीं रहे तब समझो कि ध्यान लग रहा है। फिर इसी ध्यानावस्था में जो नाद सुनो एवं जो ज्योति देखो; उसमें डूबते जाओ या स्थिर हो जाओ। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम मर रहे हैं। तब डर जाते हैं। किंतु डरना नहीं है। ध्यानावस्था में मृत्यु का मतलब है – पूर्व संस्कारों का भस्म होना। यह ध्यान योग सर्व कल्याणकारी है।
नाम सुमिरन एक तरह की भावावस्था है। अहंकार के विसर्जन के बाद ही सुमिरन आरंभ होता है। खुद को तथा खुद की हैसियत को नगण्य मान लेने के बाद ही नाम भक्ति शुरू होती है। जिस मंत्र का जाप करते हैं उस मंत्र के अर्थ को आत्मसात करना भी अनिवार्य है। अर्थ ही मंत्र है, अर्थ ही दिव्य है और अर्थ ही आनंद है। शब्द तो आवरण है, खोल है।

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