विस्मृत कल्पतरू ( हमारे गुरूदेव का प्रसंग)

शिव शर्मा

हजरत किसी समारोह में थे। अनेक साधक और श्रृद्धालु बैठे हुए दे। चिसी की बात  के संददर्भ में वे बोले __ अमृत का घङ़ा लिए हुए बैठा हूं। कोई  पीने वाला ( नचिकेता) आए तो पिलाऊं।  यह अंदर वाले कल्प तरू की बात थी। मूलाधार चक्र से सहस्त्रार  चक्र तक ले जाने का वचन था। यह आत्मानुभूति करा देने की चुनौति थी। यह अंतःजागरण का अमृत पिला देने का संकेत था। यह आज्ञा चक्र वाली अत्रिवेणी में डुबकी लगवा देने का आमंत्रण था।

     वेकिन कोई आगे नहीं बढा। सब के सब सांसारिक सुखों के याचक थे। अमृत्यु तक पहुंचने की कसक किसी में नहीं थी। अधिकतर लोग तो उस महाकथन का अर्थ ही नहीं समझे।
    इतनी बङ़ी बात आयी गयी हो घयी। फिर सब इसे भूल गये। किसी के अंदर वाला नछिकेता जागा ही नहीं। हर किसी को गोल्डन टच वाली कहानी के किं मिदाह वाला समृद्धि का वरदान चाहिए । रोटी कपङ़ा,मकान,दुकान,शादी औलाद आदि चाहिए।  वह कल्पतरू तो विस्रमृत हो गया, स्वयं के भीतर होते हुए भी खो गया। यही हमारे अज्ञान की विडम्बना है।
  वे हजरत थे __ अजमेर के सूफी संत श्री हर प्रसाद मिश्रा उवैसी।
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