अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस – 8 मार्च, 2025
महिलाओं की भागीदारी को हर क्षेत्र में बढ़ावा देने और महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए हर वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। यह केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि महिलाओं के संघर्ष और उनके हक की लड़ाई की कहानी बयां करता है। इस वर्ष की थीम “एक्सीलरेट एक्शन” यानी ‘कार्रवाई में तेज़ी लाना’ और “तेजी से कार्य करना” रखी है। यह थीम हमें बताती है कि महिलाओं को अपने ऊपर बहुत मेहनत और तेजी से काम करने की जरूरत हैं। यह लोगों, सरकारों और संगठनों को महिलाओं के उत्थान, समान अवसर प्रदान करने और भेदभाव समाप्त करने की दिशा में सक्रिय कदम उठाने के लिए प्रेरित करती है। इस दिवस का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की उपलब्धियों को सम्मानित करना और लैंगिक समानता के प्रति जागरूकता फैलाना भी है। यह दिन महिलाओं के सशक्तिकरण, समाज, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और राजनीति में उनके योगदान को पहचान दिलाने के साथ-साथ उनके अधिकारों और अवसरों की वकालत करता है। परिवार, समाज, देश एवं दुनिया के विकास में जितना योगदान पुरुषों का है, उतना ही महिलाओं का है।
नया भारत-सशक्त भारत-विकसित के निर्माण की प्रक्रिया में महिलाएं घर परिवार की चार दीवारों को पार करके राष्ट्र निर्माण में अभूतपूर्व योगदान दे रही हैं। दिल्ली एवं पश्चिम बंगाल में महिला मुख्यमंत्री हो या केन्द्र में वित्तमंत्री, खेल जगत से लेकर मनोरंजन जगत तक और राजनीति से लेकर सैन्य व रक्षा तक में महिलाएं बड़ी भूमिका में हैं। जरूरत सम्पूर्ण विश्व में नारी के प्रति उपेक्षा एवं प्रताड़ना को समाप्त करने की है। इस दिवस की सार्थकता तभी है जब महिलाओं कां विकास में सहभागी ही न बनाये बल्कि उनके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौंचने की वीभत्सताओं एवं त्रासदियों पर विराम लगे, ऐसा वातावरण बनाये। बीसवीं सदी की शुरुआत में महिलाओं ने अपने अधिकारों और बेहतर कार्य स्थितियों की मांग शुरू की थी। 1908 में न्यूयॉर्क में पन्द्रह हजार महिलाओं ने उचित वेतन और मतदान अधिकारों की मांग करते हुए मार्च निकाला। 1909 में अमेरिका ने पहली बार “राष्ट्रीय महिला दिवस” मनाया। 1910 में, जर्मन कार्यकर्ता क्लारा जेटकिन ने इसे एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन बनाने का सुझाव दिया। 1911 में कई देशों में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। 1917 में, रूस की महिलाओं ने हड़ताल कर बेहतर परिस्थितियों की मांग की, जिससे 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मान्यता मिली। संयुक्त राष्ट्र ने 1975 में इसे औपचारिक रूप से मान्यता दी, जिससे यह एक महत्वपूर्ण वैश्विक आयोजन बन गया। यह दिवस केवल जश्न का दिन नहीं, बल्कि आत्ममंथन का भी दिन है। यह हमें याद दिलाता है कि जब तक लैंगिक समानता पूरी तरह हासिल नहीं होती, तब तक यह संघर्ष जारी रहेगा।
महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भू्रण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, गांवों में महिला की अशिक्षा एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार फिर चर्चा में लाकर यह दिवस एक सार्थक वातावरण का निर्माण करने की आवश्यकता को व्यक्त करता है। जन-चेतना के एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भ्रूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहेगा? विडम्बनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने की बजाय उनका दुरुपयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं। शताब्दियों से चली आ रही अर्थहीन परम्पराओं और आत्महीनता के मनोभावों को निरस्त करने के लिए प्रतिरोधात्मक चेतना का विकास करना नितांत अपेक्षित है। नारी केवल एक शब्द नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि का आधार है। वह जीवनदायिनी है, प्रेम की मूर्ति और रिश्ते संवारने वाली शक्ति है। भारतीय संस्कृति में नारी को शक्ति, ममता, और त्याग का स्वरूप माना गया है। आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, फिर भी कई चुनौतियां उनके सामने खड़ी हैं। समाज में आज भी घरेलू हिंसा, लैंगिक भेदभाव, शिक्षा में असमानता, दहेज प्रथा, बाल विवाह जैसी बुराइयां मौजूद हैं। अगर हम किसी समाज को मजबूत बनाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें महिलाओं को सशक्त बनाना होगा।
महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को उनके अधिकार, शिक्षा, रोजगार और स्वतंत्रता देना ताकि वे अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जी सकें। जब तक स्त्री की अन्याय के प्रति विद्रोही चेतना का जागरण नहीं होता, वह अपने अस्तित्व को सही रूप में नहीं समझ सकती। उसे अपने परम्परागत महत्व एवं शक्ति को समझना होगा, वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में नारी की आराधना होती रही है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धनधान्य आदि प्राप्त होता है, फिर क्यों नारी की अवमानना होती है? नारी धरती की धुरा है। स्नेह का स्रोत है। मांगल्य का महामंदिर है। परिवार की पीढ़िका है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्नेहिल साए में जिस सुरक्षा, शीतलता और शांति की अनुभूति होती है वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। नारी जाति के अलंकरण हैं-सादगी और सात्विकता। सत्यं, शिवं सुंदरं की समन्विति कृत्रिम संसाधनों से नहीं, अनंत स्तेज को निखारने से हो सकती है। सुप्रसिद्ध कवयित्रि महादेवी वर्मा ने ठीक कहा था-‘नारी सत्यं, शिवं और सुंदर का प्रतीक है। उसमें नारी का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है, लूटी जाती है?
महिलाओं के युग बनते बिगड़ते रहे हैं। कभी उनको विकास की खुली दिशाओं में पूरे वेग के साथ बढ़ने के अवसर मिले हैं तो कभी उनके एक-एक कदम को संदेह के नागों ने रोका है। कभी उन्हें पूरी सामाजिक प्रतिष्ठा मिली है तो कभी वे समाज के हाशिये पर खड़ी होकर स्त्री होने की विवशता को भोगती रही है। कभी वे परिवार के केंद्र में रहकर समग्र परिवार का संचालन करती हैं तो कभी अपने ही परिवार में उपेक्षित और प्रताड़ित होकर निष्क्रिय बन जाती है। इन विसंगतियों में संगति बिठाने के लिए महिलाओं को एक निश्चित लक्ष्य की दिशा में प्रस्थान करना होगा। बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाएं मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-“आँचल में है दूध” को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें। एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हे उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें। ‘यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता’- जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है, यह बेहद चिंताजनक बात है।
कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। प्राचीन काल में भारतीय नारी को विशिष्ट सम्मान दिया जाता था। सीता, सती-सावित्री आदि अगणित भारतीय नारियों ने अपना विशिष्ट स्थान सिद्ध किया है। इसके अलावा अंग्रेजी शासनकाल में भी रानी लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी आदि नारियाँ जिन्होंने अपनी सभी परंपराओं आदि से ऊपर उठ कर इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। लेकिन समय परिवर्तन के साथ साथ देखा गया की देश पर अनेक आक्रमणों के पश्चात् भारतीय नारी की दशा में भी परिवर्तन आने लगे। अंग्रेजी और मुस्लिम शासनकाल के आते-आते भारतीय नारी की दशा अत्यंत चिंतनीय हो गई।
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 9811051133