
कर्तव्य कर्म में लगे रहना ही सत्य है। अकर्व्य कर्म करना पाप है। यही पाप झूठ है।
यह कबीर दास जी की एक साखी है। साखी यानि साक्षी भाव में कही गई बात – परम की अनुभूति के दौरान जो कुछ समझा, वह साखी हो गया। तो कबीर ने कहा है कि सत्य में स्थित रहते हुए जीवन व्यतीत करना ही सबसे बड़ी तपस्या है। ऐसे ही असत्य में ठहरे रहना, असत्य से बाहर ही नहीं निकलना, सबसे बड़ा पाप है। जो लोग मन, कर्म, वचन से सत्य का पालन करते हैं उन्हें स्वयं के हृदय में ही प्रभु के दर्शन हो जाते हैं। भगवान ऐसे मनुष्य के सारथी बन जाते हैं। परमात्मा ऐसे भक्तों के योगक्षेम (आवश्यकता) की व्यवस्था स्वयं करते हैं।
दो दृष्टांत-
1) कबीर के पास एक वेश्या आई और बोली कि भगवान के दर्शन करा दो। कबीर मौज़ में थे; अपनी नज़र से उसकी कुंडलिनी को मूलाधार से उठाकर सहस्त्रार में ले गए। राम के दर्शन कराए। वहां से वेश्या ने अपने अस्तित्व को देखा तो घबराकर बेहोश हो गई। होश आया तो कबीर के चरण पकड़कर रोई – उद्धार करो महाराज! वह स्त्री साधु हो गई।
2) दक्षिण भारत के किसी छोटे से राज्य की बात है। कौशिक नाम के राजा ने एक अनन्य सुंदरी युवती महादेवी से जबरन शादी कर ली। महादेवी रानी हो गई। उसने राजा को अपनी देह को स्पर्श नहीं करने दिया; बोली – मेरे पति तो महादेव शिव हैं। क्रोधित राजा ने उसके वस्त्र-आभूषण उतरवा कर महल से निकाल दिया। रानी अपने लंबे बालों से शरीर ढकते हुए जंगल में चली गई। तपस्या की; उसे शिवजी सिद्ध हो गए। तब सारे दक्षिण भारत की ‘अक्का’ (दीदी) हो गई। राजा पति ने कदम चूमे। उसके मंदिर बन गए। तो….सत्य में स्थित मनुष्य ऐसा होता है।
ऐसे ही असत्य में विचरण मनुष्य को पतन के गर्त में धकेल देता है – रोम के सम्राट नीरो की माता ने राज्य सत्ता के लिए अपने ही पति की हत्या कर दी थी। फिर नीरो ने अपनी मां का काम तमाम कर दिया। राजस्थान की ही बात है, मेवाड़ के राणा कुंभा के एक पुत्र ने ही उसकी हत्या कर दी थी। एक आदमी बीसलपुर के किनारे वाले शिव मंदिर में से नीलम का शिवलिंग चुरा कर ले गया। …झूठ ऐसा पाप भी करा देता है। इसलिए कबीर ने कहा है कि झूठ से बड़ा पाप नहीं।
अब ये देखें कि सत्य क्या है। क्या केवल सच बोलना ही सत्य है? नहीं। यह तो सत्य का एक पक्ष मात्र है। शास्त्र में ‘सर्वे हिताय’ को सत्य कहा गया है – जो कल्याणकारी है वह सत्य है। जो जीवन शैली स्वयं का तथा अन्य लोगों का भला करे, वह सत्य है। यही तपस्या है, यही साधना है, यही इबादत है, यही धर्म है। यही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा जाने के समान है। ऐसा करना कठिन है, इसी कारण यह तप कहा गया है; सबसे बड़ा तप माना गया है। मनुष्य का मन विकारों की तरफ भागता है। अहंकार अपराध कराता है, स्वाद गलत कार्य कराता है। इन सबके बीच खरा बना रहना, सत् में स्थिर रहना और कर्तव्यनिष्ठ रहना असम्भव जितना मुश्किल है।
इसलिए सत्य के निर्वाह को तपस्या कहा गया है। सत्य से अविचलन तपस्या है। विचलन स्वाभाविक है किंतु विपथगामी होना पाप है। झूठ विपथगामी होता है; गलत राह पर ले जाता है। इसलिए असत्य को पाप कहा गया है।
फिर कबीर कहते हैं कि जिसके हृदय में सत्य है उसी के दिल में भगवान रहते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने पांच बार कहा है कि ‘मैं’ अपने भक्त के ‘हृदय’ में रहता हूं। भक्त के अंदर सत्य है। जहां असत्य है, वहां भक्ति संभव नहीं है; भक्ति का दिखावा है। जहां छल-कपट है, राग-द्वेष है, लोभ-लालच है वहां सत्य असंभव है। सत्य के बिना भक्ति-योग-ज्ञान असंभव है। इसके बिना परमात्मा अनुभूति संभव नहीं। इसलिए कबीर कहते हैं ताके हिरदै आप।