घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) तहत प्रारम्भ की गई कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है

*घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) तहत प्रारम्भ की गई कार्यवाही को बीएनएसएस अधिनियम की धारा 528 व दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत रद्द किया जा सकता है -सुप्रीम कोर्ट* 
नई दिल्ली (डॉ.मनोज आहूजा ) आपराधिक प्रक्रिया संहिता और महिला संरक्षण संबंधी नागरिक कानून के बीच संतुलन बनाते हुए, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि हाईकोर्ट्स को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (DV Act) की धारा 12 (1) के तहत शुरू की गई कार्यवाहियों को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के तहत अपने निहित अधिकारों का प्रयोग कर रद्द करने का अधिकार है। यह निर्णय न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने एक हालिया फैसले में दिया।
*मामले की पृष्ठभूमि*
यह अपील मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक सामान्य आदेश से उत्पन्न हुई थी,जिसमें याचिकाओं को खारिज कर दिया गया था जो घरेलू हिंसा की कार्यवाही को रद्द करने की मांग करती थीं। याचिकाकर्ताओं में पीड़िता के पति,देवर और सास-ससुर शामिल थे।
पीड़िता ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश, देवास,मध्य प्रदेश के समक्ष DV अधिनियम की धारा 12 के तहत आवेदन दाखिल किया था,जिसमें मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न और दहेज की मांगों के आरोप लगाए गए थे।पीड़िता ने यह भी आरोप लगाया कि जोहान्सबर्ग,दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद उसे ₹20 लाख नकद और एक लग्ज़री SUV की मांग को लेकर प्रताड़ित किया गया। उन्होंने DV अधिनियम की धाराओं 18 से 23 के तहत राहत की मांग की थी।
याचिकाकर्ताओं ने CrPC की धारा 482 का हवाला देते हुए कार्यवाही को रद्द करने की मांग की थी।हाई कोर्ट ने इन याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि DV अधिनियम के तहत की गई कार्यवाहियाँ नागरिक प्रकृति की हैं और CrPC की धारा 482 के अंतर्गत उन्हें रद्द नहीं किया जा सकता।
*याचिकाकर्ताओं की दलीलें*
वरिष्ठ अधिवक्ता ने तर्क दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेटों को धारा 18 से 23 के अंतर्गत राहत देने का अधिकार दिया गया है,और ये मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत स्थापित आपराधिक न्यायालय हैं।अतःधारा 12 के अंतर्गत किया गया आवेदन आपराधिक प्रक्रिया का हिस्सा है, जिस पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 लागू होती है।
उन्होंने देवेन्द्र अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और नंदकिशोर व्यावहारे बनाम मंगला जैसे उच्च न्यायालयों के फैसलों का हवाला दिया,जिनमें यह माना गया था कि घरेलु हिंसा अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाहियों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत रद्द किया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि भले ही राहतें नागरिक स्वरूप की हों,कार्यवाही की प्रक्रिया आपराधिक प्रकृति की है।
*उत्तरदाता की दलीलें*
उत्तरदाता ने तर्क दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करने के लिए एक नागरिक कानून है और इसमें आपराधिक अभियोजन का प्रावधान नहीं है।कुनापारेड्डी बनाम स्वर्णा कुमारी के निर्णय पर भरोसा करते हुए कहा गया कि इन कार्यवाहियों की प्रकृति मुख्यतः नागरिक है,अतः दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 यहां लागू नहीं होती।उन्होंने यह भी कहा कि धारा 12 के तहत जारी नोटिस CrPC की धारा 61 के तहत जारी समन नहीं होता,बल्कि यह घरेलू हिंसा कानून के नियम,2006 के तहत फार्म VII में होता है।
*सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण*
सर्वोच्च न्यायालय ने घरेलु हिंसा अधिनियम की विधायी योजना का विश्लेषण किया,विशेष रूप से धारा 12 का,जो पीड़ित महिला को मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत करने की अनुमति देता है। न्यायालय ने माना कि हालांकि ये कार्यवाहियां दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार संचालित होती हैं (धारा 28 के तहत), परन्तु ये CrPC की धारा 200 के तहत शिकायतों से भिन्न हैं।
*न्यायमूर्ति अभय एस.ओका ने कहाः*
“घरेलु हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत किया गया आवेदन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के तहत शिकायत के बराबर नहीं है… धारा 12 की योजना पूर्णतः भिन्न है।”
यह स्पष्ट किया गया कि यद्यपि घरेलू हिंसा अधिनियम मुख्यतः नागरिक प्रकृति का है,फिर भी जिस मजिस्ट्रेट के समक्ष यह कार्यवाही की जाती है वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 6 के अंतर्गत एक आपराधिक न्यायालय होता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 में प्रयुक्त “कोर्ट” शब्द ऐसे मजिस्ट्रेटों को भी सम्मिलित करता है।
*सबसे महत्वपूर्ण रूप से,न्यायालय ने कहा:*
“जब मजिस्ट्रेट घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 (1) के तहत आवेदन की सुनवाई कर रहे हों,तब हाई कोर्ट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के दूसरे हिस्से के अंतर्गत प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने अथवा न्याय के हित में कार्यवाही को रद्द कर सकता है।”
अधिकार के प्रयोग की सीमा और सावधानी
“हाई कोर्ट को बहुत ही सतर्क और संयमित रहना चाहिए…हस्तक्षेप तभी किया जाना चाहिए जब मामला स्पष्ट रूप से गंभीर गैरकानूनीता या प्रक्रिया के घोर दुरुपयोग का हो।”
*संकलन कर्ता-डॉ.मनोज आहूजा एडवोकेट,
अध्यक्ष बार एसोसिएशन केकड़ी,9413300227*
error: Content is protected !!