गाय की सेवा: भारतीय संस्कृति और चेतना की अमर धारा

भारतीय सभ्यता की नींव में गाय एक ऐसा प्राणी है जो केवल पशु नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक प्रतीक, आध्यात्मिक धुरी और सामाजिक संस्था के रूप में विराजमान है। उसकी सेवा का विचार भारत की सामूहिक चेतना में गहराई तक समाया हुआ है। यह सेवा केवल भौतिक देखभाल तक सीमित नहीं है; यह एक पवित्र कर्तव्य, एक आध्यात्मिक साधना और सनातन मूल्यों के प्रति निष्ठा का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति के हर कालखंड, हर परत में गौमाता की महिमा गाई गई है और उसकी सेवा को परम पुण्य का कार्य माना गया है। यह लेख गाय की सेवा के इसी गहन सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व को समझने का प्रयास करता है।
भारत की प्राचीनतम साहित्यिक कृति, ऋग्वेद, गाय को दिव्य स्थान प्रदान करती है। उसमें गायों को ‘माता’ (गावो मातरः) कहा गया है, जो सृष्टि को पोषण देती हैं। एक मंत्र में कहा गया है – “गावो मे माता उत दुहिता गावः पिता उत भ्राता…” अर्थात, “गायें मेरी माता हैं, पुत्री हैं, पिता हैं और भाई हैं…” यह दृष्टिकोण गाय को मानव परिवार के सदस्य के समान, बल्कि उससे भी ऊपर, एक पूजनीय दैवीय इकाई के रूप में स्थापित करता है। गाय को ‘अघन्या’ अर्थात न मारने योग्य घोषित किया गया। यजुर्वेद में भी गाय को सर्वदेवमयी कहा गया है, यानी उसके शरीर में सभी देवताओं का निवास है। यह मान्यता गौ-हत्या को न केवल एक अपराध बल्कि एक महापाप बना देती है। अथर्ववेद गाय को सभी प्राणियों के लिए जीवनदायिनी और पापनाशिनी शक्ति के रूप में वर्णित करता है। यह वैदिक आधार ही भारतीय मानस में गौ के प्रति श्रद्धा और सेवा-भावना का मूल स्रोत है।
वैदिक काल के बाद पौराणिक साहित्य और महाकाव्यों ने गौ की महिमा को और भी विस्तार दिया। महाभारत में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि गोदान सर्वश्रेष्ठ दान है। उनका कथन है कि गाय सब कुछ देती है – दूध, घी, मूत्र, गोबर – और कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता। गाय को धरती का प्रतिनिधि माना गया। एक प्रसिद्ध कथन है – “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” (भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। गाय इसी भूमि माता की सजीव प्रतिनिधि बन गई। रामायण में भी गौ-दान और गौ-पूजन के महत्व का उल्लेख मिलता है। राजा दिलीप की कथा, जिन्होंने नंदिनी नामक गाय की सेवा करके अपने वंश की रक्षा की, गौ सेवा की महत्ता को पौराणिक आख्यानों में गूंथ देती है। भागवत पुराण और विष्णु पुराण में गायों की उत्पत्ति की दिव्य कथाएँ मिलती हैं, जो उन्हें देवलोक से पृथ्वी पर आई हुई पवित्र इकाई के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
भगवान कृष्ण का जीवन तो गौ-संस्कृति का प्राण बन गया। उनका नाम ही ‘गोपाल’ और ‘गोविन्द’ है – गायों के पालक और रक्षक। उनका सम्पूर्ण बाल लीलाकाल वृन्दावन के गोपालन और गौ-चारण में बीता। कृष्ण की बाँसुरी की मधुर तान गायों के लिए ही रची जाती थी, जो उन्हें सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाती थीं। गोपियों का गौ सेवा में लगे रहना और कृष्ण को दूध, दही, मक्खन भेंट करना भक्ति और सेवा का अनुपम उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत उठाने की प्रसिद्ध लीला का मूल कारण ही इंद्र के कोप से गायों और गोपालकों की रक्षा करना था। इस घटना ने गोवर्धन पूजा की परंपरा को जन्म दिया, जो आज भी दीपावली के अगले दिन सम्पूर्ण भारत में गौमाता और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता के रूप में मनाई जाती है। इस दिन गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाकर उसकी पूजा की जाती है। कृष्ण के इस गोपालक रूप ने गौ को भारतीय जनमानस में एक अभूतपूर्व भावनात्मक और आध्यात्मिक ऊंचाई प्रदान की। गौ सेवा को भक्ति का एक सहज मार्ग बना दिया। ब्रज भूमि आज भी गौ-संस्कृति का सबसे जीवंत केंद्र है।
गाय की सेवा की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का सबसे पवित्र रूप है ‘पंचगव्य’ – गाय के पांच उत्पादों (दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर) का समुच्चय। ये पांचों ही भारतीय संस्कृति में अत्यंत पवित्र और शुभ माने गए हैं और धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर दैनिक जीवन तक में इनका विशिष्ट स्थान है। गोमूत्र को ‘सोम’ के समान पवित्र माना जाता है। यज्ञों और पूजा-अर्चना से पूर्व शुद्धि के लिए इसका प्रयोग किया जाता रहा है। आयुर्वेद में इसे एक शक्तिशाली रोगनाशक औषधि माना गया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह शरीर के तीनों दोषों (वात, पित्त, कफ) को संतुलित करती है। गोबर का महत्व और भी व्यापक है। पारंपरिक भारतीय घरों में, विशेषकर ग्रामीण अंचलों में, गोबर से आँगन और फर्श लीपना एक दैनिक अनुष्ठान है। यह न केवल स्वच्छता और कीटाणु नाशक के रूप में काम करता है, बल्कि इसके पवित्र प्रभाव की भी मान्यता है। शुभ कार्यों जैसे विवाह, गृह प्रवेश, त्योहारों में घर के मुख्य द्वार पर गोबर से स्वास्तिक या अन्य शुभ चिन्ह बनाना एक सामान्य प्रथा है। दीपावली पर लक्ष्मी पूजन में गोबर के कलश का उपयोग किया जाता है। गाय के दूध को सबसे सात्विक आहार माना जाता है। यह पूजा के प्रसाद, अभिषेक और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न अंग है। दही को समृद्धि और शुभता का प्रतीक माना जाता है। शुभ कार्यों की शुरुआत में दही-शक्कर खिलाने की परंपरा है। घी का स्थान सर्वोपरि है। यज्ञ की आहुति में घी का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है। इसके बिना यज्ञ पूर्ण नहीं होता। दीप प्रज्वलन में घी के दीयों को विशेष पवित्रता प्रदान की गई है। माना जाता है कि घी की ज्योति में देवताओं का वास होता है और यह वातावरण को शुद्ध करती है। पंचगव्य के इस सामूहिक प्रयोग ने गाय को भारतीय जीवन में एक अनिवार्य और अविभाज्य स्थान प्रदान किया है। उसके हर अंग की उपयोगिता ने उसे केवल उपयोगी ही नहीं, बल्कि पूजनीय बना दिया।
गाय की सेवा की संस्थागत अभिव्यक्ति ‘गौशाला’ के रूप में हुई। भारत में गौशालाओं का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। प्राचीन शिक्षा के महान केंद्रों जैसे तक्षशिला और नालंदा में विशाल गौशालाओं का उल्लेख मिलता है, जहाँ न केवल छात्रों के लिए दूध की व्यवस्था होती थी, बल्कि गौ सेवा को शिक्षा का एक अंग भी माना जाता था। मध्यकाल में विजयनगर जैसे साम्राज्यों में राज्य द्वारा संचालित व्यापक गौरक्षण व्यवस्था थी। राजाओं और समृद्ध व्यापारियों द्वारा गौशालाओं की स्थापना और उन्हें दान देना एक प्रतिष्ठित कार्य माना जाता था। ये गौशालाएँ केवल गायों के आश्रय स्थल नहीं थीं; वे समाजसेवा, धार्मिक अनुष्ठान और सामुदायिक जीवन के केंद्र भी थीं। बूढ़ी, बीमार या अनाथ गायों को इन्हीं स्थानों पर सुरक्षा और देखभाल मिलती थी। गौशालाओं के प्रबंधन में अक्सर स्थानीय समुदाय की सक्रिय भागीदारी होती थी। गौशालाएँ भारतीय संस्कृति में दया, करुणा और जीव दया के सिद्धांतों की मूर्त प्रतिमा थीं।
गौ सेवा के सांस्कृतिक प्रकटीकरण का एक और महत्वपूर्ण पहलू है ‘गोदान’। प्राचीन काल से ही गाय को दान देने को सर्वश्रेष्ठ दान (गोदान महादानम्) माना गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि गोदान से सभी तीर्थों का फल मिलता है और पितरों को तृप्ति मिलती है। यह मान्यता थी कि गोदान करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों, विशेषकर श्राद्ध कर्म में, गोदान का विशेष महत्व बताया गया है। महाभारत, रामायण और पुराणों में अनेक कथाएँ हैं जहाँ राजाओं, ऋषियों और साधारण जनों द्वारा गोदान करने का वर्णन मिलता है और उसके अद्भुत फलों का उल्लेख है। यह परंपरा केवल धार्मिक नहीं थी; इसका एक सामाजिक आयाम भी था। गोदान से गरीब किसानों या ब्राह्मणों को आजीविका का साधन मिलता था। यह धन के पुनर्वितरण और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने का एक साधन भी था।
भारत की विविध लोक संस्कृतियों में गाय और गौ-सेवा के प्रति प्रेम और श्रद्धा अनेक रंगों में व्यक्त हुई है। राजस्थान में “गोरधन लीला” का आयोजन होता है, जिसमें गायों को सजाया जाता है और उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। यह कृष्ण की गोवर्धन लीला की स्मृति में होता है। गुजरात में धनतेरस के दिन गोबर से बने कलशों की पूजा का विशेष महत्व है। इन कलशों को घर में समृद्धि लाने वाला माना जाता है। तमिलनाडु में पोंगल के त्योहार पर गायों का विशेष अलंकरण किया जाता है। उन्हें नहलाया जाता है, सींगों को रंगा जाता है, मालाएँ पहनाई जाती हैं और उनकी विशेष पूजा होती है। इस दिन पहला पोंगल (खीर) गायों को ही चढ़ाया जाता है। महाराष्ट्र में गोपाष्टमी का त्योहार बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यह वह दिन माना जाता है जब कृष्ण ने गौ-चारण प्रारंभ किया था। इस दिन गायों की विशेष पूजा होती है और उन्हें मीठा चारा खिलाया जाता है। पंजाब में लोहड़ी के अवसर पर गायों को विशेष रूप से गुड़ और मूंगफली खिलाने की परंपरा है। दक्षिण भारत के कई हिस्सों में गाय को घर के प्रवेश द्वार पर बांधना शुभ माना जाता है। ये सभी लोक परंपराएँ गाय को भारतीय जनजीवन के केंद्र में स्थापित करती हैं और उसके प्रति श्रद्धा को दैनिक जीवन का अंग बनाती हैं।
पारंपरिक भारतीय ग्रामीण समाज की संरचना में गाय एक केंद्रीय स्थान रखती थी। गौशाला या गौठान गाँव का सामाजिक और आर्थिक केंद्र होता था। गाय केवल दूध देने वाला पशु नहीं थी; वह परिवार का एक सदस्य थी। उसका नामकरण होता था, उसके जन्मदिन मनाए जाते थे, और उसकी मृत्यु पर शोक मनाया जाता था। बच्चे बचपन से ही गायों की देखभाल, उन्हें चारा डालने, नहलाने और उनके साथ खेलने में लगे रहते थे। यह प्रक्रिया उनमें प्रारंभ से ही करुणा, दया, जिम्मेदारी और प्रकृति के प्रति सम्मान का संस्कार डालती थी। गौ-सेवा बच्चों के लिए प्रारंभिक शिक्षा का एक प्रमुख माध्यम थी। गाँव में सामूहिक रूप से चारा काटना, गो-चारण के लिए ले जाना, या गौशाला की सफाई करना सामुदायिक एकता और सहयोग को बढ़ावा देने वाली गतिविधियाँ थीं। इन कार्यों के दौरान लोकगीत गाए जाते थे, कहानियाँ सुनाई जाती थीं, और सामाजिक बंधन मजबूत होते थे। गाय सामाजिक समरसता का प्रतीक थी। गौशाला में सेवा करना या गोदान देना सभी वर्गों के लिए समान रूप से पुण्य का कार्य था। इस प्रकार गाय ने भारतीय ग्रामीण समाज को न केवल आर्थिक आधार दिया बल्कि उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान भी गढ़ी।
किंतु आधुनिकता और शहरीकरण की आँधी ने भारत की इस गौ-केंद्रित सांस्कृतिक जीवनशैली को गंभीर चुनौती दी है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मशीनीकरण के कारण बैलों की कृषि में भूमिका लगभग समाप्त हो गई है। अब गाय को मुख्यतः दूध उत्पादन के लिए पाला जाता है, और जब वह दूध देना बंद कर देती है, तो अक्सर उसे ‘बेकार’ समझकर त्याग दिया जाता है। शहरों में रहने वाली नई पीढ़ी का गाय और ग्रामीण जीवन से सीधा जुड़ाव कम होता जा रहा है। गौशालाएँ अक्सर संसाधनों की कमी, प्रबंधन की कमजोरी और अपर्याप्त सरकारी सहायता से जूझ रही हैं। इससे भारत की सांस्कृतिक विरासत का यह अमूल्य अंग खतरे में पड़ गया है। गौ सेवा की परंपरा मात्र कर्मकांड या राजनीतिक नारे तक सिमटने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
इस चुनौती के समाधान के लिए एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है। गौशालाओं को केवल गायों के आश्रय स्थल के बजाय ‘सांस्कृतिक विरासत केंद्रों’ के रूप में पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। इन्हें ग्रामीण अर्थव्यवस्था, पर्यावरण संरक्षण और पारंपरिक ज्ञान के केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। गोबर से बने प्राकृतिक रंगों, हस्तशिल्प, कागज, खाद और बायोगैस जैसे उत्पादों के माध्यम से इन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जा सकता है और रोजगार के अवसर सृजित किए जा सकते हैं। यह पारंपरिक कौशल को पुनर्जीवित करने का भी मार्ग प्रशस्त करेगा। शिक्षा प्रणाली में भारतीय संस्कृति में गौ के स्थान, पंचगव्य के महत्व, गौ सेवा की परंपरा और पशु कल्याण के सिद्धांतों को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। बच्चों को गौशालाओं से जोड़कर उनमें सेवा-भाव और प्रकृति के प्रति सम्मान जगाने की आवश्यकता है। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर देसी गौ नस्लों के संरक्षण और संवर्धन के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। इन नस्लों का सांस्कृतिक और पारिस्थितिक महत्व अतुलनीय है। गौ सेवा की परंपरा को केवल अतीत की गौरवगाथा न बनाकर वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है।
 गाय की सेवा भारतीय संस्कृति की धमनियों में बहने वाली एक अमर धारा है। यह केवल एक पशु की देखभाल का विषय नहीं है; यह भारत की आध्यात्मिक चेतना, सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक पहचान और प्राकृतिक संतुलन से गहराई से जुड़ा हुआ है। वैदिक ऋषियों ने गाय को माता का दर्जा देकर मानव और प्रकृति के बीच एक पवित्र रिश्ते की नींव रखी। कृष्ण के गोपाल रूप ने इस रिश्ते को भक्ति और प्रेम से सिंचित किया। पंचगव्य ने उसे दैनिक जीवन और धार्मिक अनुष्ठानों में स्थापित किया। गौशालाओं ने इसे संस्थागत आधार दिया। गोदान और लोकपरंपराओं ने इसे जन-जन तक पहुँचाया। यह सम्पूर्ण परंपरा भारत की सनातन दृष्टि का प्रतिबिंब है – एक ऐसी दृष्टि जो सभी प्राणियों में दिव्यता देखती है, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व में विश्वास करती है और सेवा को सर्वोच्च धर्म मानती है। आज जब यह परंपरा चुनौतियों का सामना कर रही है, तो इसकी रक्षा और पुनरुत्थान केवल गायों की ही नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा की रक्षा है। गौमाता की सेवा करना भारत की सभ्यतागत स्मृति को जीवित रखना है, उसकी करुणा और जीवनदायिनी शक्ति को पहचानना है। यही इस सनातन संस्कृति का सार तत्व है और यही भारत को विश्व के समक्ष एक अनूठी पहचान देता है। जैसा कि प्राचीन उक्ति है – “यत्र गावः तत्र लक्ष्मीः” – जहाँ गायें होती हैं, वहीं समृद्धि निवास करती है। गौ सेवा इसी समृद्धि, पवित्रता और सांस्कृतिक गौरव को सुनिश्चित करने का सनातन मार्ग है।
– गौ भक्त. श्री हेमराज चौधरी 
श्री केदारेश्वर गौ सेवा आश्रम चौरा (सांचौर)

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