दोस्तो, नमस्कार। मुझे आज भी कई बार उस वाकये का ख्याल आता है, जब मेरी छोटी बहिन षषि मेरे पैर छुआ करती थी। वह जानती थी कि हमारे यहां कन्या से पैर नहीं छुआए जाते हैं, इस कारण वह मेरे सोते वक्त छुप कर पैर छुआ करती थी। मुझे इसका इल्म ही नहीं था, लेकिन एक बार जब उसने पैर छुए तो अचानक मेरी नींद खुल गई। मैंने उसे डांटा, ऐसा क्यो कर रही है। उसने जो बात कही, उसे सुन कर मैं चकित रह गया। उसने बताया कि उसे मुझ में भगवान के दर्षन होते हैं। मैने उसे समझाया कि कोई इंसान भगवान कैसे हो सकता है। यह तुम्हारा वहम है। मुझे यह समझ ही नहीं आया कि उसे क्यों कर यह लगा कि मैं भगवान का रूप हूं। कहने की आवष्यकता नहीं कि वह नितांत भ्रांति से ग्रसित थी। मैने उसके साथ कभी ज्ञान चर्चा नहीं की कि उसे इस प्रकार का भ्रम हो कि मैं कुछ विषिश्ट हूं। हो सकता हो कि उसे मेरी दिनचर्या के कारण इस प्रकार की भ्रांति हुई हो। दूसरा ये कि उसे कौन से भगवान के दर्षन हुए? उसकी कल्पना का भगवान कैसा हो सकता है? कहीं उसने किसी गुण विषेश ही तो भगवान नहीं मान लिया? असल में वह बहुत बीमार रहा करती थी और मैने उसकी खूब सेवा की, कदाचित कृतज्ञता के भाव से उसने पैर छुए हों, जो भी हो मेरी बहिन के इस कृत्य को मैने कोई महत्व नहीं दिया, मगर उससे एक फायदा ये हुआ कि मुझे प्रेरणा मिली। अगर उसे मुझ में कुछ विषिश्टता दिखाई दी, जिसका कि मुझे भान नहीं था, उसे मुझे विकसित करना चाहिए। उसे मुझे पहचानना चाहिए और कुछ विषिश्ट करना चाहिए। अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए। आप देखिए, प्रकृति कैसे किसी को प्रेरणा देने का कोई माध्यम चुनती है। प्रकृति की इस व्यवस्था के प्रति मैं अहोभाव से नतमस्तक हूं।
