
कपिल मुनि की माता का नाम देवहूति था। देवहूति ने अपने पुत्र को ही गुरू के रूप मे धारण किया था। तब वह सत्तर साल की थी। दीक्षा के वक्त गुरू ने समझाया कि _
मनुष्य के चेतन मन का संकल्प ही शिष्य होता है,देह नहीं। शिष्य न स्त्रीलिंग होता है, न पुल्लिंग।।शिष्य का कोई नाम नहीं होता है, वह केवल शिष्य होता है। शिष्य का मतलब है स्वयं को शून्य करते हुए गुरू के पास बेठना। मन को सांसारिक कामनाओं से खाली करने के बाद गुरू की शरण मे रहना।
इसी तरह आत्मानुभूति वाले ज्ञान का नाम गुरू है। वह किसी का पिता,पुत्र,मित्र,शत्रु नहीं होता है।
यदि शिष्य का कार्य पूरा होने से पहले ही उसका देहांत हो जाता है तो सूक्षम देह धारा जीवात्मा श्वेत लोक मे रहते हुए जप तप को पूरा करती है। मांडूक्य उपनिसद के अनुसार भी सूक्षम शरीर हिमालय मे सुमेरू पर्वत से ऊपर स्थित श्वेत लोक मे रहते हैं।
देवहूति को उन्होंने बारह साल तक योग एवं सांख्य दर्शन का ज्ञान कराया। देवहूति स्वयं आचार्य हो गयी। जब शिस्य के रूप मे उनका काम पूरा हो गया तो जीवन की सार्थकता भी सिद् हुई। तब कोई कार्य शेष नहीं रहा।शरीर की जरूरत नहीं रही। देवहूति ने गुरू से अनुमति ली और योग विधि से देह त्याग दी। इस तरह अपने गुरू के ही सामने वह मुक्त हो गयी।