-केशव भट्टड़
भारतीय सिनेमा के नक्षत्र गुरुदत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बेंगलुरु, कर्नाटक में एवं उनकी मृत्यु 10 अक्टूबर 1964 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुई थी। शताब्दी वर्ष पर श्रद्धांजलि देते हुए गुरुदत्त की प्रसिद्ध फ़िल्म-त्रयी ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, और ‘साहब बीबी और गुलाम’ में सामाजिक संरचना के अंतरसंबंध पर विचार करते हैं।
गुरुदत्त की फिल्में प्यासा (1957), कागज़ के फूल (1959), और साहब बीबी और गुलाम (1962) भारतीय सिनेमा की कालजयी कृतियाँ हैं, जो न केवल कला और तकनीक के उत्कृष्ट नमूने हैं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं, व्यक्तिगत त्रासदियों और मानवीय भावनाओं की गहरी पड़ताल भी करती हैं। इन तीनों फिल्मों में सामाजिक सरंचनाओं के अंतरसंबंध को समझने के लिए हमें उनके कथानक, पात्रों, और अंतर्निहित दर्शन को देखना होगा।
1. प्यासा: व्यक्तिगत आदर्श बनाम सामाजिक भौतिकवाद
प्यासा में गुरुदत्त एक कवि विजय के रूप में समाज के भौतिकवादी और पाखंडी चेहरे को उजागर करते हैं। विजय की कविता और उसकी आत्मा समाज की सतही मूल्यों से टकराती है। यहाँ सामाजिक संरचना का आधार वर्ग भेद, पूँजीवाद और मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा है। गुलाबो, एक तवायफ, और विजय का रिश्ता समाज के नैतिक ढोंग के खिलाफ एक विद्रोह है, जो प्रेम और कला की शुद्धता को रेखांकित करता है। गीत “जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं” सामाजिक पाखंड और नैतिक पतन पर करारा प्रहार करता है। गीत “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” आज भी चमकीले सामाजिक जीवन के पीछे छिपी सच्चाई को उजागर करता है।
2. कागज़ के फूल: सिनेमा और समाज का क्षणभंगुर स्वरूप
कागज़ के फूल में गुरुदत्त एक फिल्म निर्देशक सुरेश सिन्हा के माध्यम से सिनेमा उद्योग की अस्थायी प्रकृति और व्यक्तिगत जीवन की त्रासदी को दर्शाते हैं। यह फिल्म समाज में प्रसिद्धि, सफलता और प्रेम के पीछे छिपे खोखलेपन को उजागर करती है। सामाजिक संरचना यहाँ सिनेमा के ग्लैमर और उसकी निर्ममता के रूप में सामने आती है, जहाँ व्यक्ति की पहचान उसकी कला से ज्यादा उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। शांति (वहीदा रहमान) और सुरेश का रिश्ता सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच टकराव को दर्शाता है।
3. साहब बीबी और गुलाम: सामंती पतन और नारी की स्थिति
साहब बीबी और गुलाम में गुरुदत्त सामंती समाज के पतन और उसमें नारी की दयनीय स्थिति को चित्रित करते हैं। छोटी बहू (मीना कुमारी) की त्रासदी सामंती संरचना में स्त्री की बेबसी और उसकी आंतरिक शक्ति का प्रतीक है। यह फिल्म सामाजिक परिवर्तन के दौर में पुरानी व्यवस्था के टूटने और नई आधुनिकता के उदय को दर्शाती है, मोहिनी सिंदूर के माध्यम से बाज़ार द्वारा मुनाफ़े के लिए आस्था के अनैतिक दोहन को सामने रखती है। भूतनाथ के माध्यम से गुरुदत्त एक बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण से सामंती समाज की क्रूरता और नैतिक पतन को उजागर करते हैं।
इन तीनों फिल्मों में सामाजिक संरचना एक केंद्रीय थीम है, जो विभिन्न रूपों में सामने आती है:
वर्ग भेद और सामाजिक पाखंड: प्यासा में कवि की उपेक्षा, कागज़ के फूल में निर्देशक की असफलता, और साहब बीबी और गुलाम में सामंती ठाकुरों की क्रूरता यह दर्शाती है कि समाज की संरचना व्यक्तिगत सपनों और संवेदनाओं को कुचल देने वाली है।
नारी की स्थिति: गुलाबो, शांति, और छोटी बहू तीनों ही सामाजिक बंधनों में जकड़ी हैं, फिर भी अपनी आंतरिक शक्ति और प्रेम के माध्यम से विद्रोह करती हैं। यह गुरुदत्त की नारी-केंद्रित संवेदनशीलता को दर्शाता है।
आधुनिकता बनाम परंपरा: प्यासा और कागज़ के फूल में आधुनिक समाज की भौतिकता और साहब बीबी और गुलाम में सामंती व्यवस्था का पतन परिवर्तन के दौर को दर्शाता है।
कला और जीवन का द्वंद्व: तीनों फिल्मों में कला (कविता, सिनेमा, और कहानी) समाज की कठोर वास्तविकता से टकराती है, और गुरुदत्त यह दिखाते हैं कि सच्ची कला समाज के दबाव में भी अपनी आवाज़ बुलंद करती है।
गुरुदत्त की यह त्रयी सामाजिक संरचनाओं के विभिन्न पहलुओं—वर्ग भेद, लैंगिक असमानता, सामंती पतन और पूँजीवादी भौतिकवाद—को उजागर करती है। उनकी फिल्में न केवल व्यक्तिगत त्रासदियों की कहानी कहती हैं, बल्कि समाज की गहरी खामियों को भी स्पष्टता के साथ सामने लाती हैं। गुरुदत्त का सिनेमाई दृष्टिकोण और उनकी संवेदनशीलता इन फिल्मों को न केवल कालजयी बनाती है, बल्कि सामाजिक चेतना का एक शक्तिशाली माध्यम भी।
गुरुदत्त, भारतीय सिनेमा के एक ऐसे नक्षत्र, जिनकी चमक आज भी हमारे दिलों और स्क्रीन पर बरकरार है। उनकी फिल्में न केवल कला का उत्कृष्ट नमूना थीं, बल्कि मानवीय भावनाओं, सामाजिक विसंगतियों और जीवन के गहन दर्शन को दर्शाने वाली कालजयी रचनाएँ थीं।
गुरुदत्त एक अभिनेता, निर्देशक और निर्माता होने के साथ-साथ एक कहानीकार थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों में तकनीकी कौशल और भावनात्मक गहराई का अद्भुत समन्वय किया। उनकी हर फ्रेम में कविता, हर गीत में दर्शन और हर किरदार में जीवन की सच्चाई झलकती थी। उनकी हर विशिष्ट फिल्म पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। उनका असमय चले जाना भारतीय सिनेमा के लिए अपूरणीय क्षति रही।
सर गुरुदत्त, आपकी कला अमर है, और आप हमेशा हमारे बीच रहेंगे। हमारी श्रद्धांजलि।