आर्थिक स्वतंत्रता का नया अध्याय

डाँ नीलम महेंद्र

1947 में मिली आज़ादी, एक स्वर्ण किरण थी! हमने तिरंगा फहराया, राष्ट्रगान गाया और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में साँस ली। पर क्या वो स्वतंत्रता पूरी थी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया उद्घोष – “भारत का सबसे बड़ा दुश्मन कोई विदेशी ताक़त नहींबल्कि हमारी निर्भरता है!” – इस गहन प्रश्न को एक बार फिर से जीवंत कर गया है। यह सिर्फ एक बयान नहीं, बल्कि हमारे सामूहिक विवेक को झकझोरने वाला सत्य है, जो हमें उस शीशे के सामने खड़ा कर देता है जहाँ हमारी राजनीतिक आज़ादी की चमक, आर्थिक और डिजिटल पराधीनता की धुंध में खोई हुई दिखती है।

कल्पना कीजिए एक विशाल वृक्ष की, जिसकी जड़ें तो अपनी मिट्टी में हैं, पर उसकी शाखाएँ और फल दूसरों के बगीचे में उग रहे हों। कुछ ऐसी ही स्थिति रही है हमारी। हमारे सैनिक, जो देश की सीमा पर सीना ताने खड़े हैं, उनके हथियार अक्सर विदेशी फ़ैक्ट्रियों से आते रहे। हमारे युवाओं के सपनों को पंख देने वाले विश्वविद्यालय अक्सर सात समंदर पार पाए गए। और हमारी डिजिटल धड़कनें? वे अमेरिकी कंपनियों के अदृश्य एल्गोरिद्म के इशारों पर नाचती रहीं। यह कैसी आज़ादी हैजहाँ हम शरीर से स्वतंत्र हैं पर आत्मा से अभी भी बंधे हुए हैं?

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारी अर्थव्यवस्था की नसों में कौन-सा रक्त बह रहा है? PwC, Deloitte, EY और KPMG – ये चार विशालकाय कंपनियाँ, जिन्हें हम ‘बिग फोर’ कहते हैं, दशकों से भारत की आर्थिक धमनियों पर अपना कब्ज़ा जमाए बैठी हैं। PwC ने तो 1880 में ही कोलकाता में अपने तंबू गाड़ दिए थे – जब भारत में अंग्रेज़ों का राज था! EY 1914 से यहाँ है, Deloitte 1976 से और KPMG 1993 से।

सोशल मीडिया पर इन कंपनियों द्वारा भारत से लूटे जा रहे अरबों-खरबों रुपयों की बहस छिड़ी रहती है – कोई ₹38,000 करोड़ कहता है, कोई ₹45,000 करोड़। पर असली खेल पैसों का नहीं, बल्कि ‘डेटा’ का है! NSE में सूचीबद्ध कंपनियों ने पिछले साल लगभग ₹1,903 करोड़ ऑडिट फ़ीस दी, जिसमें से बिग फोर का हिस्सा ₹550–600 करोड़ था। यह रकम भले ही छोटी लगे, पर इसका महत्व ‘कुबेर के खजाने’ से कम नहीं।

ये फर्में जानती हैं कि कौन-सी भारतीय कंपनी कहाँ से कच्चा माल खरीदती हैकिस भाव बेचती हैकिस सेक्टर में हमारी ताकत है और कहाँ हमारी नसें कमजोर हैं। यह जानकारी सोने से भी ज़्यादा कीमती है! यही वो खुफिया जानकारी है जिसका इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियाँ हमें ‘BBB’ या ‘BBB-‘ जैसी रैंकिंग थमाने के लिए करती हैं। यानी, हमारा ही डेटा हमारे खिलाफ़ एक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि यह सिर्फ व्यापार का मामला नहीं बल्कि यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का हृदय-भेदी प्रश्न है!

इस अदृश्य खतरे को चीन ने बहुत पहले पहचान लिया था। वहाँ विदेशी ऑडिट फर्मों पर ‘ड्रैगन’ की कड़ी निगरानी रहती है। PwC को तो चीन में उसकी रियल एस्टेट कम्पनी Evergrande मामले में भारी आर्थिक दंड और छ माह का प्रतिबंध भी भुगतना पड़ा था।

रूस ने भी यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी सेवाओं को सीधे-सीधे ‘रेड कार्ड’ दिखा दिया और VK तथा Telegram जैसे अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खड़े कर लिए। ये देश दुनिया को चिल्ला-चिल्लाकर बता रहे हैं कि आत्मनिर्भरता केवल एक जोशीला नारा नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता का अंतिम गढ़ है।

अब भारत भी उसी चौराहे पर खड़ा है, जहाँ उसे अपना रास्ता खुद बनाना है। मोदी सरकार का सपना है कि भारत अपनी खुद की “ग्रुप ऑफ फोर” फर्मों का निर्माण करे। ऐसी भारतीय कंपनियाँ, जो न केवल हमारे देश की कंपनियों का ऑडिट करें, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी विश्वसनीयता का लोहा मनवाएँ। हालांकि यह चुनौती आसान नहीं है क्योंकि Deloitte या PwC जैसी कंपनियों ने सौ साल में अपना साम्राज्य खड़ा किया है, पर यह असंभव भी नहीं है!

पर असली युद्ध तो डिजिटल रणभूमि में लड़ा जा रहा है! सुबह आँख खुलते ही हम WhatsApp खोलते हैं, दिन भर YouTube या Instagram पर सर्फ करते हैं, और शाम को Facebook पर अपनी ज़िंदगी की कहानियाँ पोस्ट करते हैं। ये सब अमेरिकी कंपनियों के प्लेटफॉर्म हैं, जिनकी अदृश्य डोरियों से हमारे विचार और भावनाएँ नियंत्रित होती हैं। उनके एल्गोरिदम तय करते हैं कि कौन-सी खबर आपको दिखेगी, किसका वीडियो वायरल होगा, और कौन-सी आवाज़ दब जाएगी।

जब चीन WeChat और Weibo बना सकता है, और रूस VK तथा Telegram खड़ा कर सकता है, तो भारत क्यों पीछे रहे? प्रश्न यह नहीं कि क्या हम बना सकते हैं। प्रश्न यह है कि क्या हम चाहेंगे कि हमारी सोच, हमारी संस्कृति, और हमारी राष्ट्रीय पहचान पर हमेशा विदेशी कंपनियों का अदृश्य नियंत्रण बना रहे? यह हमारी डिजिटल आत्मा की स्वतंत्रता का प्रश्न है!

कुछ यही हाल शिक्षा क्षेत्र का है। हर साल लाखों भारतीय छात्र विदेशों में पढ़ने जाते हैं और लगभग तीन-चार लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम फीस चुकाते हैं। और फिर यह प्रतिभाशाली बच्चे वहीं नौकरी पकड़ लेते हैं। यह हमारे प्रतिभाशाली युवा ज्ञान का पलायन है, जो हमें भीतर से खोखला कर रहा है।

समस्याएं अनेक हैं लेकिन इन सबका हल एक ही है, आत्मनिर्भरता।

हमें अपनी अकाउंटिंग फ़र्मों को विश्वस्तरीय बनाना होगा, अपने स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खड़े करने होंगे, जो हमारी संस्कृति और आवाज़ को बुलंद करें। साथ ही हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को इतना मज़बूत करना होगा कि हमारे बच्चे विदेश जाने के बजाय यहीं अपने सपनों को पंख दें। अपनी रक्षा इंडस्ट्री को सही मायने में आत्मनिर्भर बनाना होगा। और सबसे बढ़कर, हमें अपने नागरिकों और निवेशकों का अटूट भरोसा जीतना होगा।

इसके लिए सरकार को साहसी और दूरगामी कदम उठाने होंगे जिससे निजी क्षेत्र आगे आकर इस क्रांति में अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित हो।

क्योंकि यह लड़ाई केवल नीतियों की नहीं, बल्कि सोच की भी है।

आज का भारत उस ऐतिहासिक मोड़ पर है, जहाँ से वह अपना भाग्य खुद लिख सकता है। 1947 में हमने राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की थी। अब वक्त है आर्थिक और डिजिटल स्वतंत्रता हासिल करके आत्मनिर्भर होने का।

डॉ नीलम महेंद्र

(लेखिका पेट्रोलियम एवं गैस मंत्रालय में हिंदी सलाहकार समिति की सदस्य हैं)

Leave a Comment

This site is protected by reCAPTCHA and the Google Privacy Policy and Terms of Service apply.

error: Content is protected !!