शरद पूर्णिमा का चांद, क्या यह सिर्फ कवियों, प्रेमी प्रेमिका, लेखकों, खगोलविदों के ही काम आएगा?

तभी चंपकलाल जी के हसीन सपनों को तोड़ते हुए पत्नी ने कहा पेपर को ठीक से पढ़ो। यह हंगर नहीं हंटर मून लिखा है। ओह हंटर मून।जी हां साहब, यह तो किसी जंगली शिकारी के ही काम आएगा। आखिर यह भूख किसकी है जो चांद की तरह बढ़ती ही जाती है। इसकी अमावस्या की रात कभी क्यों नहीं आती है ।क्या काली अमावस्या की रात इतनी बुरी होती है? ऐसा है तो फिर दिवाली अमावस्या के दिन क्यों मनाई जाती है? ये भूख कब मिटेगी? क्या आप जानते हैं ? धर्म पत्नी फिर बोली । जी हां, हम सब की सांझा भूख जिसके हम सहयात्री चल तो रहें हैं, लेकिन कैसे? गोल गोल। ये पद, पैसा, पॉवर प्रतिष्ठा, ये भूख आखिर कभी घटती क्यों नहीं । क्या काली अमावस्या की रात इतनी बुरी होती है? मिटती ही नहीं ।
उधर विश्व खाद्य दिवस चर्चा का विषय बना है। विश्व गुरु भारत भी इसकी चपेट में आ चुका है लेकिन हम तो खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हैं, यही हमने पढ़ा है। फिर कौन है जो इस अंतर्राष्ट्रीय मानक को गढ़ रहा है? खाद्य से खाद्य श्रृंखला भी याद आई क्या, हमने वही आबादी तो नहीं बढ़ाई, जो हमारे मन को भाइ । वैसे कहीं पढ़ा था कोरोना के बाद हंगर जनरेशन की एक नई बाढ़ आई है जो समझती है जो कुछ भी है वह आज ही है। कल किसने देखा है? हां, हमने भी सुना है जो वर्तमान में रहता है वही आनंदमई खुशहाल जीवन जीता है। फिर क्या हम खुशहाली इंडेक्स में सर्वोपरी हैं? नहीं – नहीं ऐसा भी नहीं है।वह पायदान भी तो लगातार फिसलता जा रहा है।लेकिन यह फिसलने क्यों बढ़ रही हैं? कहीं मानसून की मानसिकता तो नहीं बदल गई?
देखो खुशियों की थोक बास्केट का तो पता नहीं, किन्तु खुदरा मूलभूत वस्तुओं की बास्केट बाजार की बूल जरूर बन गई है ।अब यह महंगाई का सांड सबको उठा उठा कर पटक रहा है।
ऐसे में आप ही बताओ, किसी गरीब को शरद पूर्णिमा का चांद कैसा नजर आएगा? गोल गोल रोटी जो उसने पसीने से सेंकी हैं । कभी-कभी तो वह दो जून की रोटी के लिए खून भी बहाता है तब उसे यही चंद्रमा ब्लड मून भी नजर आता है। क्या कभी इन गरीबों की वजह से शेयर मार्केट में ब्लड बाथ आता है? फिर कौन है वह जो महंगाई, मुद्रा स्फीति को ऑल टाइम हाई बनाता है? मुद्रा का इतना फ्लकचुएशन क्या अंतरराष्ट्रीय बाजार से ही आता है? या कोई और इसे बढ़ाता है?
वह देखो ग्लेशियर पिघलता जा रहा है समंदर का जल स्तर भी बढ़ता जा रहा है। कल सोशल मीडिया पर एक टूटे ग्लेशियर के कांच के टुकड़ों पर डरे सहमे चलते पोलर बियर को देखा। बेचारा मासूम बर्फीले कांच पर चल रहा है? यह मनुष्य क्यों इतना ग्लोबल वार्मिंग का इंडेक्स बढ़ा रहा है? क्या प्रभु से पृथ्वी का पेटेंट सिर्फ हमने ही करवाया है? आखिर कितने सालों का है यह अनुबंध? विडंबना तो देखो, हमारे सुरों की ताल में भी उनकी खाल लगी है। क्या हमने भी अपनी खाल कभी उन्हें दधीचि बन दान की ? मरे जीव की चाम से तो लोह भस्म हो जाता है! किन्तु भुखमरी से मरने वालों का तो सरकारी आंकड़ा भी खारिज कर दिया जाता है। कब उनके जीवन में उज्वला योजना आएगी? कब उनके बास्केट में भी गोल गोल चांद सी रोटी नजर आएंगे। देखो उस पृथ्वी का ग्रेविटेशनल फोर्स भी खिसक रहा है।
नहीं नहीं यह सब चांद और सूरज का गुरुत्वाकर्षण नहीं कर रहा है।
यह तो वही लोहा कर रहा है जिसका दोहन इंसान कर रहा है।
चंपकलाल चुपचाप पत्नी की बात सुन रहे हैं। वो हैं कि बजट भाषण की तरह निर्मल भाव से बोले जा रही है। चलो छोड़ो बूल- वूल को वो तो बिन झोली के फकीर हैं। उनके हाथों में तो वोटों की लकीर नहीं ।
किंतु संविधान ने तो जनता को सर्वोपरी रखा है फिर उसका अधिकार कौन गटक रहा है? अन्न दान भी महादान कहलाता है।क्या इन गरीब झोली के फकीरों को तो हमने दान दक्षिणा दी है? कैसी विडंबना है यह।दान भी हम सुपात्रों को ही देते हैं, वो जो हमारी हैसियत के ही होते हैं। उन्हें ही भोजन पर निमंत्रण देते हैं। हां, भोजन बच जाए तो उसे हम दान में या कूड़ेदान में देते हैं।
देखो आज फिर शरद पूर्णिमा की चांदनी में अमृत बरस रहा है अमृत महोत्सव भी सरकारों का चल रहा है। फिर वह कौन है जो ओलंपिक में ना सही विश्व हंगर इंडेक्स में भारत को अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर रहा है? क्या आप जानते हैं उस जनरेशन को? वह स्वयं को युवा बता हलवे की रस्म पूरी कर रहा है। क्या युवा वर्ग इस स्वाद में पड़ रहा है?
सबको सब कुछ पता है कौन है वह? जो गरीबों को दाने-दाने के लिए मोहताज कर रहा है। देखो हमारी सरकार तो कब से गरीबी हटाओ का नारा लगा रही है। कभी अन्नपूर्णा तो कभी इंद्रा योजना उसे बना रही है।बस अंतर शब्दों के खेल का है।क्या सचमुच कोई भूखा नहीं सोता? यह सवाल अधिक पेचीदा निकला । कहीं ऐसा तो नहीं दो बिल्लियों के झगड़े में बंदर रोटी गटक रहा है, बड़ा आदमी बन चन्द्रमा पर बसने की सोच रहा है? सोचो उस समय एक गरीब मां अपने भूखे बच्चों को क्या लोरी सुनाएगी । चंदा मामा आएंगे, दूध मलाई खाएंगे।
तब एक बच्चा तपाक से बोला, नहीं मां, हम तो शरद पूर्णिमा की खीर खाएंगे। क्या वह सचमुच आएंगे? या वो बच्चे भूखे ही सो जाएंगे? नीर बहाते हुए मां स्वप्न में खीर खिला कर मुस्कुरा रही है। हां बेटा अच्छे दिन आएंगे। चंपकलाल मुस्कुराए तुम छत पर रखी खीर गरीबों को खिला देना। मुझे तो बस एक कप चाय पिला दो, पेट में चूहे कूद रहे हैं देवीजी, कहकर श्रीमती जी उन चूहों को देखने लगी जिन्हें पिंजरे में पकड़ पकड़ हम गरीबों की झोपड़ी में छोड़ आएं।अब वो भूखे कैसे सोएंगे?
एकता शर्मा, छत्तीसगढ़ रायपुर