मैं बीहड़ हूं। यमुना और चंबल नदियों के बीच फैला सुदीर्घ भू-भाग। 8212 एकड़ के मेरे विशाल सीने को कई बार छलनी किया गया। कभी अंग्रेज सरकार की फौज के बूट जख्मी करते हुए निकल गए तो कभी डाकुओं की गोलियों से मेरा आंचल लहूलुहान हुआ, लेकिन इतिहास के पन्नों में कुछ ऐसी पदचाप भी दर्ज हैं जिन्हें मैं अब तक भुला नहीं पाया। यह आहटें जनपद के उन जांबाज क्रांतिकारियों की थीं जिन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर देश के लिए जंग लड़ी थी।
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इनमें से सबसे पहले मुझे कुंअर रूप सिंह का नाम याद आता है। मई 1857 में देश गदर की आग में झुलस उठा था। पड़ोस के इटावा में 16 मई को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति की चिंगारी भड़की जिसकी लपटें बीहड़ तक आ पहुंची। 20 मई को कुंअर रूप सिंह ने यमुना तट पर जिले के रणबांकुरों को एकत्र कर शपथ दिलाई थी कि आखिरी सांस तक जंग जारी रहेगी।
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24 जून को झांसी क्षेत्र के क्रांतिकारी क्रांति के गीत गाते हुए यमुना नदी पार कर जनपद में आए। इनका निशाना थी औरैया तहसील। जनपद में प्रवेश करते ही कुंअर रूप सिंह और उनके साथियों ने इनका स्वागत किया और शाम को तहसील पर हमले में बढ़ चढ़कर साथ दिया। अगले दिन बेला तहसील पर धावा बोला गया। जुनूनी क्रांतिकारियों ने तत्कालीन अंग्रेज भक्त तहसीलदार को पीट -पीट कर मार डाला। औरैया तहसील पर कुंअर रूप सिंह ने कब्जा कर लिया और स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। विप्लव की खबर सुनकर तत्कालीन कलक्टर एओ मैनपुरी के लेफ्टीनेंट ग्रांट के नेतृत्व वाली सेना बुलवाई, लेकिन यह अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तक इटावा न पहुंच सके।
हताश ह्यूंम कानपुर के मेजर वालपोल की सेना बुलवाई, लेकिन कानपुर में भी भयानक दंगा चल रहा था। सेना भी न आ सकी। जनपद के इतिहास में यह इबारत स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है कि करीब पांच माह तक पूरे देश में अंग्रेजों का शासन होने के बावजूद यह इलाका आजादी का आनंद लेता रहा। बाद में ह्यूंम ने खुद ही औरैया आकर दमन का निर्णय लिया।