संवेदना, सौंदर्य और भाषा का संयोजन है साहित्य

साहित्य को विरोध का हथियार न बनने दें
राजस्थान साहित्य अकादमी की विचार गोष्ठी सम्पन्न

2अजमेर/संवेदना का संस्कार, सौंदर्य का विस्तार और भाषा का परिष्कार इन तीनों मानदण्डों में खरा उतरने वाला लेखन ही साहित्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। तथ्य और कल्पों में उलझना वैज्ञानिकों का काम है साहित्य का आधार तो केवल संवेदना है। वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य के साथ अनेक संकट प्रत्यक्ष हैं। वैश्विकता की आड़ में कई विघटनकारी ईकाइयां एक स्वतंत्र अस्मिता के विरोध में खड़ी दिखाई पड़ती हैं। विमर्श के मायने बदले जा रहे हैं। मानवाधिकार के विभ्रम के चलते स्त्री विमर्श का अर्थ पुरूष विरोध और दलित विमर्श का अर्थ समाजिक विरोध के रूप में माना जा रहा है। राजनीतिक विरोध के हथियार के रूप में प्रयुक्त होकर साहित्य अपनी अस्मिता को खो रहा है। रचनाकार को स्वप्रेरणा से संवेदनशील रहकर अपनी उड़ान भरनी है, लेकिन उसे किसी अन्य प्रभाव में आन्दोलन का हथियार नहीं बनने देना चाहिए। ये विचार राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ इन्दुशेखर ‘तत्पुरूष‘ ने शनिवार 16 सितम्बर 2017 को स्वामी कॉम्प्लेक्स में हुई विचार गोष्ठी में ‘हिन्दी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य‘ विषय पर मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए व्यक्त किये। नाट्यवृंद संस्था और अखिल भारतीय साहित्य परिषद् के सहयोग से हिन्दी पखवाड़े के तहत आयोजित इस साहित्यिक संगोष्ठी में उन्होंने अकादमी की विविध योजनाओं की जानकारी देते हुए सर्वसमावेशकता के भाव के साथ राजस्थान के सभी साहित्यकारों को जोड़ने की बात भी कही।
संयोजक और अकादमी सदस्य उमेश कुमार चौरसिया ने हिन्दी के मौलिक लेखन के स्थान पर विदेशी भाषाओं से अनूदित साहित्य को महत्व देने की मानसिकता को बदलने की बात कही। अध्यक्षीय उद्बोधन में पद्मश्री डॉ. चन्द्रप्रकाश देवल ने कहा कि साहित्य की दृष्टि संकुचित नहीं होती, इसलिए साहित्यकारों को परस्पर शत्रुता जैसे भाव से बचना चाहिए। आजादी के 70 वर्षाें में प्रत्येक सत्ता द्वारा कला और साहित्य को हाशिये पर रखे जाने की प्रवृति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि समस्त भारतीय भाषाओं में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसने बहुत कम समय में विश्वभर में लोकप्रियता और प्रतिष्ठा हासिल की है। सारस्वत अतिथि कथाकार-चित्रकार राम जैसवाल ने कहा कि भारत में आए मुगल और अंग्रेज आक्रांताओं की दासता और संत्रास व असुरक्षा के भाव ने भारतीय मौलिक साहित्य को क्षति पहुँचाई है। इसीलिए पश्चिम के साहित्य को श्रेष्ठ कहने की परिपाटी चल पड़ी है। पढ़ने की जिज्ञासा और लेखन में संवेदना कम हो रही है इसे बचाए रखना होगा। वेदविज्ञ व साहित्यविद् डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली ने नयी पीढ़ी को जोड़ते हुए कविता में कवित्व और कहानी में कथातत्व को बचाए रखकर पाठकों के मन को छू लेने वाले साहित्य रचने पर बल दिया। प्रारंभ में सह संयोजक डॉ पूनम पाण्डे, डॉ शमा खान, श्याम माथुर, डॉ चेतना उपाध्याय और संदीप पाण्डे ने अतिथियों का स्वागत किया। गोष्ठी में डॉ नवलकिशोर भाभड़ा, बख्शीश सिंह, डॉ बीना शर्मा, डॉ अनन्त भटनागर, डॉ भँवरलाल जोशी, डॉ संदीप अवस्थी, डॉ अंजु, गोविन्द भारद्वाज, डॉ शकुन्तला तंवर, देवदत्त शर्मा, विपिन जैन, डॉ घ्वनि मिश्रा, रामविलास जांगिड़ इत्यादि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। गोष्ठी में नगर के अनेक प्रबुद्धजन और साहित्यकार उपस्थित रहे।
उमेश कुमार चौरसिया
संयोजक व
सदस्य राजस्थान साहित्य अकादमी
9829482601

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