आतंकवाद के साथ इस्लाम का नाम लेना मुसलमानों का अपमान

अजमेर 22 August 2018 । सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के वंशज एवं वंशानुगत सज्जादा नशीन दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान ने कहा है कि आतंकवाद के साथ इस्लाम का नाम लेना मुसलमानों का अपमान है ऐसा करने वाले न सिर्फ इस्लाम की शिक्षाओं और उसके इतिहास के बारे में जानकारी नहीं है बल्कि वह लोग इस्लाम धर्म को आम लोगों के बीच बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं ।

अजमेर दरगाह के आध्यात्मिक प्रमुख दरगाह दीवान ने ईदुल अजहा के मौके पर जारी बयान में यह बात कही और कहा कि ईदुल अजहा त्याग , आत्म इच्छा का समर्पण और आज्ञाकरीता के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है लोगों को इसे अपने जीवन में अपनाने की आवेशक्ता है क्यों की इस्लाम शांति भाईचारा मिलनसार से जीवन यापन करने की शिक्षा देता है इस्लाम के अंतिम पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने बिल्कुल स्पष्ट संदेश दिए हैं कि इस्लाम धर्म के मानने वाले अनुयाई इस्लाम के उपदेशों नियमों की अनुपालना तो पूरे मनोयोग के साथ करें पर किसी दूसरे धर्म के बारे में किसी प्रकार का अनर्गल प्रचार या असम्मान की दृष्टि नहीं रखें। ऐसे में यदि कोई इस्लाम धर्म के विरुद्ध ऐसे अनर्गल विचार प्रकट करता है कि इस धर्म में कट्टरता अथवा आतंकवाद को प्रोत्साहन दिया जाता है तो वह कतई गलत है क्योंकि इस्लाम धर्म के कमोबेश एक लाख चौबीस हजार पैगंबरों ने केवल मात्र शांति का संदेश दिया है इसलिए आतंकवाद का इस्लाम से कोई संबंध नहीं है यदि कोई इस्लाम को आतंकवादी मजहब करार देता है तो वह केवल इस धर्म से घृणा का इजहार करते हैं।

उन्होंने कहा कि इस दौर में इस्लाम को आतंकवाद से इस तरह जोड़ दिया गया है कि अगर कोई व्यक्ति को किसी ग़ैर मुस्लिम के सामने इस्लाम का शब्द ही बोलता है तो उसके मन में तुरंत आतंकवाद का ख़याल घूमने लगता है जैसे कि आतंकवाद का माआज अल्लाह इस्लाम का दूसरा नाम है जबकि हिंसा और इस्लाम में आग और पानी जैसा बैर है जहाँ हिंसा हों वहा इस्लाम की कल्पना तक नहीं की जा सकती है इसी तरह जहा इस्लाम हो वहा हिंसा की हल्की सी भी छाया नही पड़ सकती ।इस्लाम अमन व सलामती का स्रोत और मनुष्यों के बीच प्रेम व ख़ैर खवाहि को बढ़ावा देने वाला मजहब है। इस्लाम की शिक्षाओं का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि जबके इस्लाम की शिक्षाओ से सहाबा -ए-कराम अमन व अमान का दर्स देते रहे उनके बाद फिर हर दोर में उलेमा-ए-इस्लाम ,ओलिया-ए-किराम और सूफ़िया-ए-इजाम उल्फत व मोहब्बत का दर्स देते रहे और आज तक मजहब-ए-इस्लाम में उलफत व मोहब्बत का दर्स दिया जा रहा है ।

यह बात साबित है कि आज जो इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ा जा रहा है वह सरासर अन्याय हैं और अगर कोई ऐसा व्यक्ति आतंवाद करे जो टोपी और कुर्ता पहना हो तो उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि मुसलमान आतंकवादी है क्यों की मुसलमान केवल टोपी दाढ़ी रख लेने का नाम नहीं है बल्कि जिसके अंदर लोगों के ख़ून की हिफ़ाज़त करने का जज़्बा होगा ,नाहक़ क़त्ल और गारत को रोकने वाला होगा वह मुसलमान होगा क्यों की मज़हब-ए-इस्लाम इसी की तालीम देता है।

उनका तर्क था कि जहाँ आतंकवाद है वहा इस्लाम का नामो निशा भी नहीं है । हर मुस्लिम अपने इस्लाम को अच्छे से समझे ताकि हर उठते हुए फित्तने का जवाब डट कर दे सके और ग़ैर मुस्लिमों के सामने अपने इस्लाम की सही तस्वीर व हक़ीक़त को पेश करें।

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