हेपेटाइटिस सी के मरीजों की अलग मषीन पर डायलिसिस की जरूरत नहीं

उम्रदराज मरीजों की हिमोडायलिसिस से पूर्व परिवारजन की सहमति जरूरी
अजमेर, 28 सितम्बर( )। हेपेटाइटिस ‘सी’ से पीड़ित मरीजों को आइसोलेषन में रख कर अलग मषीन पर डायलिसिस करने की कतई जरूरत नहीं होती है। हिमोडायलिसिस के मरीजों में हेपेटाइटिस ‘सी’ का इंफेक्षन बहुत सामान्य है, इसके इलाज के लिए बहुत ही प्रभावकारी दवाइयां उपलब्ध हैं व तीन माह के इलाज से मरीज के खून में से इसका वायरस खतम हो जाता है।
यह जानकारी षुक्रवार को नेफ्रोलाॅजिस्ट डाॅ रणवीरसिंह चैधरी ने अजमेर के चिकित्सकों के समक्ष साझा की। वे मित्तल हाॅस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर अजमेर के सभागार में ‘हिमोडायलिसिसः इतिहास और वर्तमान में प्रचलित तरीकों’ विशय पर व्याख्यान दे रहे थे। सतत चिकित्सा षिक्षा (सीएमई) के अन्तर्गत आयोजित इस व्याख्यान कार्यक्रम की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू मेडिकल काॅलेज, अजमेर के जनरल मेडिसिन विभाग के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष एवं प्रो डाॅ अनन्त गुप्ता ने की। इस मौके पर निदेषक मित्तल हाॅस्पिटल डाॅ दिलीप मित्तल ने उनका स्वागत व अभिनन्दन किया।
डाॅ रणवीरसिंह चैधरी ने बताया कि हिमोडायलिसिस के मरीज की प्रतिरक्षण क्षमता बहुत कम हो जाती है। उसे कई तरह की अन्य बीमारियां व जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। इसलिए जरूरी है कि हिमोडायलिसिस के मरीज को अपना डायलिसिस नेफ्रोलाॅजिस्ट की देखरेख में ही कराना चाहिए। वर्तमान में देखा गया है कि इस आवष्यकता को अपनाया नहीं जा रहा। डाॅ रणवीर ने बताया कि उम्रदराज मरीजों को डायलिसिस करते हुए जटिलताएं व जान का जोखिम अधिकतम स्तर पर होता है इसलिए 70 से 80 वर्श की आयु के मरीजों की हिमोडायलिसिस कराने से पूर्व परिवारजन की पूर्ण सलाह व सहमति होनी ही चाहिए। डाॅ चैधरी ने यह भी सलाह दी कि जिन मरीजों के किडनी की काम करने की क्षमता 15 प्रतिषत से कम हो जाती है व लगता है कि मरीज को छह से बारह माह में हिमोडायलिसिस की जरूरत हो सकती है तो उनके हाथ में ए वी फ्रिस्टूला बना देना चाहिए। इससे इमरजेंसी में डायलिसिस की जरूरत पड़ने पर रोगी को भर्ती कर उसके गर्दन की खून की नस में कैथेटर डालने की आवष्यकता से बचा जा सकता है। डाॅ चैधरी ने यह भी सलाह दी कि हिमोडायलिसिस के मरीजों को हिपेटाइटिस ‘बी’, निमोनियां व इन्फ्लूऐंजा का टीका लगवाना चाहिए।
गौरतलब है कि किडनी फैलियर के मरीजों के लिए कृ़ित्रम रूप से जीवन में वृद्धि करने को लेकर उपचार का तरीका हिमोडायलिसिस ही है। जब किडनी के काम करने की क्षमता दस प्रतिषत से कम रह जाती है और षरीर में जहर जैसे यूरिया एकत्र होने लगता है व षरीर के दूसरे अंगों पर इसका प्रभाव बढ़ने लगता है जिससे जान को जोखिम हो जाता है, इनको षरीर के बाहर निकालने के लिए हिमोडायलिसिस की सलाह दी जाती है। जो मरीज गुर्दा प्रत्यारोपण नहीं करवा सकते हैं उन्हें षेश जीवन जीने के लिए जीवन भर सप्ताह में दो से तीन बार हिमोडायलिसिस कराना पड़ता है।
डाॅ चैधरी ने डायलिसस के इतिहास की बात करते हुए बताया कि पहला सफल हिमोडायलिसिस का परीक्षण कुत्तों पर किया गया था। भारत में पहला हिमोडायलिसिस सीएनसी वेल्लोर में 1962 में किया गया था। वह भी बिहार के हथवा राज्य के राजा गोपष्वर प्रसाद साही का पहला डायलिसिस हुआ था।
डाॅ चैधरी ने बताया पहला सफल हिमोडायलिसिस विलयम कोफ द्वारा 1948 में किया गया था। विलयम कोफ को फादर आॅफ हिमोडायलिसस भी कहा जाता है। इस अवसर पर मुख्य अतिथि को स्मृति चिंह प्रदान कर सम्मानित किया गया। हैड हाॅस्पिटल एडमिनिस्ट्रेटर डाॅ विद्या दायमा ने आरंभ में विशय पर प्रकाष डाला और अंत में आभार व्यक्त किया।

सन्तोश गुप्ता
प्रबंधक जनसम्पर्क/9116049809

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