गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि इस शरीर की अंतिम स्थिति है यह वियोग धर्मी है। क्योंकि संसार का यह नियम है जिसका संजोग होता है उसका वियोग अवश्य होता है ।आत्मा का भी शरीर के साथ संयोग हुआ है और यह भी एक दिन वियोग में बदल जाता है। शरीर के साथ मकान ,दुकान ,सोना ,चांदी ,धन वगैरह और परिवार सब यहीं छूट जाते हैं ।कहा जाता है कि शाहजहां के पास अपार धन 700 मण सोना, 1400 मण चांदी, 53 करोड़ का तख्ते हाउस और भी अपार धन व सत्ता थी मगर जब इस दुनिया से चला तो सब यहीं रह गया । सिकंदर भी खाली हाथ ही गया ।हमारे साथ भी कुछ नहीं जाने वाला है मगर फिर भी व्यक्ति हर चीज पर मेरेपन का लेबल लगाए हुए हैं। मेरा धन, मेरा परिवार, मेरा शरीर आदि कोई दूसरा आपकी संपत्ति पर अधिकार नहीं जमाले इसके लिए आप मकान, दुकान ,जमीन आदि की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लेते हैं ,कि अमुक संपत्ति का मालिक में हूं ।मगर वास्तविकता तो यह है कि आप अपने शरीर के मालिक भी नहीं है जैसे किराए के मकान को मकान मालिक के कहने पर खाली करना पड़ता है उसी प्रकार मौत के आने पर शरीर को छोड़ना पड़ता है। आप स्वप्न देखते हैं स्वपन अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी हो सकते हैं मगर स्वप्न का अस्तित्व कब तक है आंख नहीं खुले तब तक, जैसे ही आंख खुल जाती है तो अच्छे स्वप्न हो या बुरा स्वपन,सपनों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार जो कुछ दिखाई दे रहा है वह खुली आंख के स्वप्न के समान हैं इसका अस्तित्व भी जब तक ही है ,जब तक मौत नहीं आती है ।जिस प्रकार नींद वाला स्वप्न अच्छा हो या बुरा आप उस पर ज्यादा राग और द्वेष नहीं करते, क्योंकि जानते हैं कि यह स्वप्न हैं तो फिर जागते हुए जो स्वप्न चल रहा है उसमें आसक्ति या राग द्वेष क्यों करते हो, कैसी भी स्थिति हो, हमें जड़ के लिए चेतन से संघर्ष नहीं करना चाहिए। मकान ,दुकान, धन ,दौलत आदि सब जड़ है मगर हमारे भाई ,बहन ,परिवार वाले तो चेतन है .हमें नाशवान पदार्थों के लिए चेतनावान जीवो से लड़ाई ना हो, ऐसा प्रयास करना चाहिए और संयोग और वियोग के सिद्धांत को समझ कर अपनी आसक्ति और राग द्वेष के भावो को हटाने का प्रयास करना चाहिए ।अगर ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ रहा तो यत्र तत्र सर्वत्र आनंद ही आनंद होगा ।
धर्म सभा को पूज्य श्री विराग दर्शन जी महारासा ने भी संबोधित किया ।धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेडा ने किया।
पदम चंद जैन
*मनीष पाटनी,अजमेर*